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सन २०१४, मई का महीना। शहर के अस्पताल के आठ बेड वाले आईसीयू वार्ड में मध्य रात्रि का काल। एक ओर अस्पताल के बाहर नीरव शांति पसरी हुई थी तो दूसरी ओर वार्ड में विविध प्रकार के यंत्रों की ध्वनि गूँज रही थी। मध्य रात्रि में इन यंत्रों की बोझिल सी ध्वनि जीवन का प्रमाण दे रही थी। यंत्रों की कमजोर होती ध्वनि साक्षात यमराज के आगमन की आशंका को जन्म दे देती। इसीलिए इन यंत्रों की भयावह आवाजें रोगियों और उनके स्वजनों के लिए संगीत के सुरों से भी अधिक मधुर थीं।
आईसीयू वार्ड में पाँच रोगियों का इलाज चल रहा था। तीन बेड खाली थे या फिर यूँ कह सकते हैं कि ये तीनों बेड आगंतुक रोगियों की प्रतीक्षा कर रहे थे। वार्ड के दरवाजे पर एक वार्ड बॉय कुर्सी पर बैठे हुए झपकियाँ ले रहा था। रिसेप्शन पर बैठी नर्स बेधड़क डेस्क पर सर रख कर नींद का आनंद ले रही थी। कर्मचारियों की कमी के कारण वार्ड में हर-एक रोगी के पास एक स्वजन के रुकने की अनुमति दी गई थी लेकिन उनके बैठने-सोने की कोई व्यवस्था नहीं थी।
बेड नंबर-3 पर आयुशी का इलाज चल रहा था। उसका अभी तक रोग-निदान नहीं हो पाया था। वहीं आयुशी के बेड के पास पारस बैठा हुआ था। उसके माथे पर चिंता की लकीरें उभरीं हुई थीं। आईसीयू वार्ड के बाहर प्रतीक्षा-कक्ष में एक बेंच पर आयुशी और पारस के चिंतातुर पिता बैठे हुए थे।
आयुशी की बाईं ओर बेड नंबर-2 पर नन्हे से चिरंजीव को भर्ती कराया गया था। स्वास्थ्य के चक्कर में चिरंजीव को पाठशाला नहीं भेजा जा सकता था लेकिन फिर भी वह सुबह-शाम अभ्यास करता था। यह आपको नहीं बताऊंगा कि चिरंजीव किस रोग से पीड़ित था। यह तो चिरंजीव को भी नहीं बताया गया था। बस इतना जान लीजिए कि उसके लिए स्वाध्याय और पढ़ाई अब आश्वासन मात्र ही थे।
अचानक से अस्पताल में गतिविधियाँ बढ़ने लगीं। एक इमरजेंसी केस आया था। स्ट्रेचर पर आगंतुक रोगी लाया गया। आईसीयू वॉर्ड का दरवाजा राक्षसी जबड़े की चरचराती आवाज के साथ ऐसे खुला मानो वह किसी भक्ष्य को निगलने की प्रतीक्षा कर रहा हो। बार्ड बॉय और नर्स के चेहरों पर कड़वाहट साफ़ दिख रही थी। डॉक्टर को टेलिफोन कर के संदेश भेजा गया। अस्पताल के कर्मियों और नवागंतुक रोगी के स्वजनों ने रोगी के शरीर को आयुशी के दाहिनी ओर के बेड नंबर-1 पर स्थापित कर दिया। नर्स केस पेपर्स और अन्य रिपोर्ट्स अपने रजिस्टर में दर्ज करने में व्यस्त हो गई।
दिन भर दवाइयों और इंजेक्शनों का लंबा दौर चलता और इन्हीं इंजेक्शन के प्रभाव से आयुशी को नींद लग जाती। लेकिन पारस की नींद पिछले कुछ दिनों से उड़ चुकी थी। आसपास घटित हो रही गतिविधियों से उसका मन घबरा रहा था। नवागंतुक रोगी की हालत चिंताजनक थी। पारस केबिन से बाहर निकला और नवागंतुक रोगी का अवलोकन करने लगा। रोगी की आँखें खुली थीं, उसकी धड़कने बड़ी तेज चल रही थीं। रोगी के पीछे लगे मॉनिटर में आँकड़े तेजी से बदलते जा रहे थे। उसके स्वजनों के चेहरे फीके पड़ चुके थे। सभी लोग डॉक्टर का इंतजार कर रहे थे।
डॉक्टर का आगमन हुआ और उन्होंने निरपेक्ष भाव से नवागंतुक रोगी की ओर देखा। केस-पेपर्स की जाँच पड़ताल करते हुए उन्होंने नर्स को कुछ सूचनाएं दीं। रोगी के पुत्र की ओर देखते हुए रूखे स्वर में डॉक्टर ने कहा, “कुछ दवाईयां लिखीं हैं, वो ले आइए।” रोगी का युवा पुत्र पर्ची लेकर भागते हुए वार्ड से अदृश्य हो गया। रोगी की प्रौढ़ पत्नी डॉक्टर के समक्ष कुछ आशाप्रद सुनने की उम्मीद में हाथ जोड़कर खड़ी थी लेकिन डॉक्टर साहब प्रौढ़ा को अनदेखा करते हुए चुपचाप मॉनिटर पर बदलते आँकड़े देखते रहे।
पारस ने देखा कि वार्ड के दरवाजे पर पिताजी आँखें गड़ाए अंदर हो रही घटनाओं का जायजा लेने का प्रयास कर रहे थे। वह बाहर निकला और उसने अपने पिताजी को प्रतीक्षा-कक्ष में आराम करने जाने की बात कही। पिताजी ने पूछा, “आयुशी तो ठीक है ना?” पारस बोला, “सो रही है।” पिताजी वापस प्रतीक्षा-कक्ष में चले गए और पारस वार्ड में लौट आया।
मॉनिटर पर आँखें गड़ाए डॉक्टर और नर्स के चेहरों पर भाव बदल रहे थे। अब तक स्थितप्रज्ञ लग रहे डॉक्टर के चेहरे पर प्रस्वेद की बूँदें उभर आईं थीं। उन्होंने तुरंत नर्स और वार्ड बॉय को सूचनाएँ देनी शुरू कर दी। प्रौढ़ा आँखें बंद कर प्रार्थना में लीन थी मानो वह अपने सतीत्व की परीक्षा दे रही हो। अभी तक दवा-इंजेक्शन लेने गया नवागंतुक रोगी का पुत्र वापस नहीं आया था।
रोगी के पास लगे यंत्रों की गूँज धीमी होती जा रही थी। डॉक्टर साहब अपने अन्तिम प्रयासों में लगे हुए थे लेकिन अब सभी प्रयास व्यर्थ हो चुके थे। डॉक्टर निराश हो कर केबिन से बाहर निकल आए। वार्ड बॉय ने रोगी के शरीर पर लगे इसीजी तथा अन्य यंत्रों को निकालना शुरू कर दिया। अभी तक रोगी की आँखें खुली थीं। वॉर्डबॉय ने धीरे से रोगी की पलकें बंद कर दी। प्रौढ़ा फफक-फफक कर रोने लगी। उसका पुत्र दवा-इंजेक्शन लिए कुछ क्षणों तक कैबिन के बाहर भौंचक्का सा खड़ा रहा। अब उसकी भी आंखों के बाँध टूट गए।
नर्स ने पेपर-वर्क हो जाने तक दोनों को बाहर प्रतीक्षा-कक्ष में जाने का आदेश दिया। पारस ने प्रौढ़ विधवा और उसके युवा पुत्र को सहारा देकर प्रतीक्षा-कक्ष तक पहुँचाया। उन दोनों माता-पुत्र का आक्रंद देख कर पारस और उसके पिता नि:शब्द हो गए।
पारस वापस आयुशी के पास लौटा। वह पास में ही घटी दुखद घटना से अनभिज्ञ शांति से सो रही थी। अस्पताल में नियमित रूप से ऐसे किस्से देखने के बाद पारस का मन भयभीत हुआ जा रहा था। सोच सोच कर उसका सर दर्द से फटा जा रहा था। तभी आयुशी जाग गई और उसने धीमी आवाज में पारस को पुकारा “भाई … भाई … कहाँ हो तुम?” पारस तुरंत उठ खड़ा हुआ और उसने आयुशी का हाथ पकड़ लिया, “बहना, मैं यहीं हूँ। तुम्हारे पास।”
आयुशी ने आँखें खोली और पारस की ओर देखते हुए मुस्कुरा कर कहा, “भाई, तुम यहीं रहना, मेरे पास। मुझे विश्वास है, जब तक तुम मेरे साथ हो मुझे कुछ नहीं होने दोगे।” पारस उसके पास बैठ गया और बोला, “जल्दी ही हम घर जाएँगे। तुम्हें याद है ना इस जन्मदिन तुम्हारे लिए एक खास उपहार प्लान किया है मैंने!” आयुशी के चेहरे पर खुशी छा गई। वह संगीत और वाद्य-वादन में विशेष रुचि रखती थी, पारस ने अगले जन्मदिन पर उसे वीणा गिफ्ट देने का वादा किया था।
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छः सितंबर, 2020। उपरोक्त घटनाक्रम को छह से अधिक वर्ष बीत चुके हैं। सुबह के चार बज रहे हैं। पारस अपने घर के बरामदे में खड़ा है। एकाकी और शून्यमनस्क।
आवरण चित्र – एडवर्ड मंच, सौजन्य – गूगल