शेयर करें
हिन्दी दिवस पर बड़ा ही मनोहारी दृश्य था। दो ऐसे कवि प्रेम पूर्वक मिले थे जिन्हें कवि सिर्फ वही दोनों समझते थे और वह भी परस्पर कवि की मान्यता पाने के लिए। इसे इन कवियों के स्तर पर टिप्पणी न समझा जाए क्योंकि आजकल स्तरीय होना कवि के रुप में प्रसिद्ध होने की आवश्यक शर्त नहीं है।
दृश्य में मनोहर सिर्फ भाव ही था क्योंकि कवियों के मिलन की जगह स्वच्छ भारत को मुँह चिढ़ाता हुआ पटना का मीठापुर बस पड़ाव था। दोनों कवियों का औसत रुप लावण्य भी अखिल भारतीय औसत से दो या तीन पायदान नीचे था। दोनों के बीच परनामा-पाती हुई और हिन्दी दिवस की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान हुआ। बिना किसी भूमिका के दोनों ने आँखों ही में आँखों में ‘जियो और जीने दो’ की स्पिरिट के साथ ‘सुनो और सुनाने दो’ का द्विपक्षीय समझौता करते हुए एक कवि सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय कर लिया।
समझौते आसानी से हो जाते हैं पर असली परेशानी होती है उनके कार्यान्वयन में। सत्तर के दशक का शिमला समझौता, अस्सी के दशक का पंजाब समझौता, असम समझौता, मिजोरम समझौता और न जाने कितने अकथित व अनाम समझौते होने को तो हो गये पर इनका कार्यान्वयन हुआ या नहीं हुआ, हुआ तो कितना हुआ और कौन सी बाधाएँ आईं, यह सब इतिहास है। काँग्रेस, एनसीपी और शिवसेना के बीच हुए समझौते को ही देखिए। समझौता चल तो रहा है पर समझौते के साथ। उधर मुम्बई ही नहीं पूरा देश पूछ रहा है, “ये क्या हो रिया है?” जब इन सत्ता संसाधन संपन्नों का समझौता कार्यान्वयन कठिन होता है तो बेचारे इन दोनों निरीह और नॉन-सेलेब कवियों की क्या बिसात।
कवि सम्मेलन के आयोजन की पहली बाधा थी – बस पड़ाव में दोनों के बैठने के लिए किसी जगह का अभाव अर्थात मंच बनाने की समस्या। बिहार के विकास पुरुष ने स्पष्ट और सख्त आदेश दे रखा है कि मीठापुर बस पड़ाव में कोई बेंच या कुर्सी न लगाई जाए वरना फालतू कविगण और बतोलेबाज इन पर बैठकर काव्य पाठ या बकैती से अनुत्पादकता को बढ़ावा देंगे। यह आदेश इसलिए भी है कि बैठने की जगह देखकर शराब के शौकीन यहाँ मद्यनिषेध की धज्जियाँ उड़ा सकते हैं। अभी वे अपना शौक होम डिलीवरी से घर में ही पूरा करते हैं।
आस पास के अति स्वच्छ एवं शुद्ध (सिर्फ बाहर लगे बोर्ड के अनुसार ही) वेज/ नॉन वेज ढाबे विकल्प हो सकते थे लेकिन कवि गण पुरानी परम्परा के कवि थे। उनका अक्षुण्ण कड़कापन आड़े आ रहा था। किन्तु दोनों धुन के पक्के थे। अपने एजेंडा को मूर्त रुप देने के लिए गपियाते हुए कविद्वय पटना जंक्शन के करबिगहिया छोर पर जा पहुँचे। हमारे कमजोर इच्छाशक्ति वाले नेताओं को कविद्वय से सबक लेना चाहिए।
पटना जंक्शन के करबिगहिया छोर पर टिकट खिड़की के सामने खाली जगह है। यह जगह रात में रेल यात्रियों के सोने के काम आती है। दिन में भी कुछ आराम-पसन्द यात्री यहाँ लोट-पोट करते पाए जाते हैं। यहाँ सुरक्षा का कोई खतरा नहीं है। इससे आप यह न समझिए कि रेल पुलिस बहुत कर्मठ हो गयी है। दरअसल यहाँ कुत्ते २४*७ सुरक्षा सेवा मुहैया कराते हैं, कुत्तों से स्वयं की रक्षा की जिम्मेदारी यात्रियों पर है।
इसी जगह को दोनों कवियों ने अपने काव्य पाठ के लिए चुन लिया। कोरोना काल में अभी भी जारी मिनी लॉकडाउन में यात्री कम ही दिख रहे थे पर एक मद्धिम सी आस भी थी कि शायद टिकट लेने आने वाले यात्रियों में से दो चार श्रोता भी मिल जाएं या टिकट खिड़की पर खाली बैठे बाबू का कविता प्रेम ही जाग जाए। इसी आशा में साफ दिखते रेलवे फर्श पर कविद्वय पालथी मारकर बैठ गये।
दूसरी समस्या यह थी कि ‘कविता पहले पढ़ेगा कौन या पहले सुनेगा और चटेगा कौन’ पर निर्णय। टॉस से इसका हल निकाल लिया गया। पहले कवि ने काव्य पाठ शुरु कर किया। स्टेशन के ल़ोग कविता पाठ होते देखकर रास्ता काटकर इधर उधर से ऐसे निकलने लगे गोया कविता से कोरोना संक्रमण का खतरा हो। बेपरवाह कवि जी ने काव्य पाठ जारी रखा …
बेढ़ंग बेडौल मैं कटहल सा
तुम गोल मटोल अनार प्रिये
जामून हूँ मैं कसेला सा
तुम हो लीची रसदार प्रिये
दूसरे कवि ने वाह वाह की झड़ी लगा दी, सुरक्षा देते कुत्तों ने भाउँ भाउँ की। कवि जी पढ़ते रहे, दूसरे वाह वाह करते रहे। वाह वाह करने की भी एक सीमा होती है। उसके आगे भी कुछ कहना होता है। वाह वाह करते हुए श्रोता कवि सोचते रहे कि इसे श्रृंगार की श्रेष्ठततम रचना बताएँ या कवि को पर्यावरणवादी कवि कह दें या फलों की पौष्टिकता के लिए इसे स्वास्थ्यवर्द्धक कविता करार दें। श्रोता कवि निर्णय नहीं कर सके तो सिर्फ वाह वाह इस तरह करते रहे जैसे उनके कैसेट की रील फँस गयी हो। अभिभूत वक्ता कवि ने अपना काव्य पाठ तालियों के बीच समाप्त किया। यहाँ यह बताना आवश्यक नहीं है कि तालियाँ बजाने वाले चार हाथों में दो स्वयं इनके थे।
ताली बजाकर, वाह वाह करके और अपनी बारी की प्रतीक्षा करके थके दूसरे कवि की बारी आयी तो वह पालथी लगाए ही बल्लियों उछलने लगे। हम और हमारा साहित्य उस युग में हैं जहाँ अपनी रचनाओं से नहीं बल्कि बायो से खुद को व्यंग्यकार बताया जाता हैं या रचना के नीचे ‘यह व्यंग्य है’ लिखकर। दूसरे कवि व्यंग्यकार और कवि के कॉकटेल निकले। उन्होंने भोजपुरी कवित्त से व्यंग्य कसना आरम्भ किया …
नेता बारन लउकत
चमचा बारन फउँकत
भोटर बारन छउकत
चुनाव आ गईल का हो
‘श्रोता भी कभी वक्ता था’ का ध्यान रखते हुए और अपने काव्य पाठ पर हुई प्रशंसा का मान रखते हुए श्रोता कवि ने ‘बाह बाह’ का अंबार लगा दिया। ‘वाह वाह’ की जगह ‘बाह बाह’ कहना भोजपुरी का सांकेतिक सम्मान था क्योंकि भोजपुरी का सम्मान माँगने के लिए जारी लठ्ठमलठ्ठा के बीच भोजपुरी का सम्मान या तो न के बराबर होता है या होता है तो सिर्फ सांकेतिक। उन्हीं चार हाथों की तालियों के बीच ही दूसरे कवि का भी कविता पाठ समाप्त हुआ।
‘सुनो और सुनाने दो’ को साकार करने का दूसरा दौर भी चलता लेकिन तभी कवियों की नज़र बहुत देर से उन्हे घूर रहे रेल पुलिस जवान पर पड़ गयी। सुबह से स्वयं चाय न पी सके कविद्वय चाय-पानी माँगे जाने की आशंका से घबरा गये। काव्य पाठ हो चुका था। लिफाफा अदायगी की कोई रस्म थी नहीं। इसलिए आँखों के इशारे से कवि सम्मेलन का समापन कर दिया गया। न कैब बुकिंग का टंटा था और न ही ऑटो हायरिंग का झमेला। अगला सम्मेलन वृहद और भव्य करने के निश्चय और हिन्दी दिवस पर साहित्य साधना की संतुष्टि के साथ कविद्वय अपनी ११११ नंबर की साझी पोर्टेबल सवारी पर निकल पड़े।