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जन्म के पश्चात जब से मेरी आँखें खुलीं तब से केसरी नभमण्डल में अस्ताचल के पीछे ढलता हल्का सा रक्तवर्णी सूर्य मुझे हमेशा आकर्षित करता रहा था। श्मशान घाट की अंतिम चौकी के पास बरगद के पेड़ पर हम सभी पंछियों के घोंसले थे। वहीं एक ऊँची सी टहनी पर था हमारा प्यारा घर।
सुबह होते ही माँ मेरे लिए दाना ढूँढने के लिए उड़ान भरती। संध्या के इस समय जब वो ढ़ेर सारा खाना लिए वापस लौटती तो मेरा मन प्रफुल्लित हो उठता लेकिन मेरी दिनचर्या के सबसे सुंदर पल वो होते जब रात में माँ मुझे पंचतंत्र, हितोपदेश, रामायण और महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियाँ सुनाती। इन सभी कथाओं में मुझे द्रविड़ राज्य के पाण्ड्यवंशी राजा इंद्रद्युम्न और गंधर्वश्रेष्ठ हूहू की गजेंद्र-मोक्ष कथा अत्याधिक प्रिय थी। माँ कहती थी कि राजा इंद्रद्युम्न ने अनजाने में ऋषि का अपमान किया था और गंधर्व हूहू ने जानबूझकर अपराध किया था। परम कृपालु परमात्मा ने शिक्षा देने पश्चात दोनों को ही अपनी शरण में लिया और दोनों को मोक्ष प्रदान किया।
“राजा इंद्रद्युम्न सदैव देव अराधना में लीन रहते थे। उनका राज्य संपन्न था और प्रजा भी संतुष्ट थी। इसलिए इंद्रद्युम्न भगवद्भक्ति में अपना समय व्यतीत करते थे। एक बार इंद्रद्युम्न मलय पर्वत पर साधनारत थे और बाह्य जगत से अलिप्त हो चुके थे। तभी संयोगवश महर्षि अगस्त्य उस स्थान पर आए। साधनारत इंद्रद्युम्न ऋषि का यथोचित सम्मान नहीं कर पाए। ऋषि ने उन्हें जड़बुद्धि समझा और क्रोधवश उन्हें अगले जन्म में हाथी रूपी जड़ प्राणी होने का श्राप दिया। राजा ने ईश्वरीय प्रसाद मान कर श्राप को सहर्ष स्वीकार कर लिया।”
प्रतिदिन श्मशान में कितने ही मृतकों को जलाया जाता लेकिन माँ के अनुसार मनुष्यों के अंतिम पड़ाव श्मशान-घाट का बरगद हम पंछियों की कितनी ही पीढ़ियों का जन्मस्थान रहा था। सूर्य ढल चुका था। मेरी माँ के अलावा पेड़ के सभी पंछी घोंसलों में वापस लौट आए थे। श्मशान घाट में आज की अंतिम चिता का दहन पूर्णता की ओर अग्रसर था। मृतक के स्वजन घर वापस लौटने की तैयारी कर रहे थे। श्मशान-घाट के दूसरे छोर पर शिवालय के पुजारी अपने घर जा चुके थे। मंदिर के गर्भगृह में लगी एक छोटी-सी बत्ती के झिलमिलाते प्रकाश में एकाकी शिवलिंग का अर्धाभासी दर्शन हो रहा था।
क्षुधा और पिपासा से मेरा मन उद्विग्न हो रहा था लेकिन सबसे बड़ी चिंता का विषय यह था कि माँ अभी तक घर वापस क्यों नहीं लौटी। मैं जोर जोर से चीं-चीं की आवाजें लगा कर मेरी प्यारी माँ को पुकारे जा रहा था किन्तु सुनने वाला कोई नहीं था। मुझे अभी तक उड़ना नहीं आता था। मैं माँ को ढूँढने जाता भी तो कैसे? मैंने कितनी ही बार माँ को पूछा था कि बरगद के बाकी सभी पंछियों की तरह मैं भी ऊँचे गगन में उड़ना चाहता हूँ, मुझे भी नगर से सुदूर नदी पार कर के गाँवो में जाना है। माँ बस हँस देती। फिर वह प्यार से कहती, “एक बार पंख आ गए और उड़ना सीख गए फिर पंछी के बच्चे रुकते कहाँ हैं!”
समय बीतता जा रहा था। चिता के पास बैठा चांडाल बेफिक्री से बीड़ी पीते हुए चिता शांत होने की प्रतीक्षा कर रहा था। दिन भर मृत देहों से घिरा रहने वाला यह व्यक्ति स्वयं भयावह रूप प्राप्त कर चुका था। शुरुआत में मैं इस मनुष्य का विकराल रूप देख कर डर जाता था किन्तु एक दिन माँ ने राजा हरिश्चंद्र की कथा सुनाई और मेरा भय जाता रहा।
अंधेरा होने के बाद नगरवासियों का इस श्मशान घाट के रास्ते से गुजरना कम ही होता था। माँ अक्सर व्यंग्य में कहती कि मनुष्य अपने ही पूर्वजों से भयभीत होने वाला तथाकथित बुद्धिमान प्राणी है। रास्ते से वाहनों का शोर कम हो रहा था। श्मशान भूमि के नजदीक कलकल बहती स्वर्गवाहिनी नदी की मधुर ध्वनि स्पष्ट सुनाई दे रही थी। फिर भी अब तक माँ का कोई अता-पता नहीं था।
मध्यरात्रि की बेला और चन्द्रमा के प्रकाश में बरगद के पत्ते चाँदी की भाँति चमक रहे थे। आम दिनों में रात के इस समय माँ मेरा विशेष ध्यान रखती थी। पेड़ के नीचे एक सर्प रहता था जो मध्यरात्रि के बाद शिकार पर निकलता था। जैसे ही वो पेड़ पर चढ़ता सभी पक्षी शोर कर के एक-दूसरे को चेतावनी देते। यह विषैला सर्प मुझे गंधर्वश्रेष्ठ हूहू जैसा लगता था जो ऋषि देवल का अपमान करने के अपराध में मगर-ग्राह योनि में जन्म लेने को अभिशप्त हुए थे। यह सर्प भी संभवतः ऐसे ही किसी अपराध का दण्ड सर्प योनि में भुगत रहा था। इस विषधर से मेरी रक्षा करने के लिए आज मेरी माँ मेरे समीप नहीं थी। मुझे माँ की याद आ रही थी। माँ के साथ कुछ अघटित घटने की शंकाओं (शंख) का (गदा) प्रहार झेल रहा मेरा मस्तिष्क विचारों के (सुदर्शन) चक्र में घिर गया था।
क्षुधा से मेरा शरीर अशक्त हो रहा था। मेरे नेत्र सामने बहती नदी की ओर माँ की एक झलक पाने को तरस रहे थे। नदी में एक हाथी कुछ हथिनियों के साथ जलक्रीड़ा में मग्न था। मदमस्त हाथियों का झुंड अपनी शक्ति के मद में चूर एक-दूसरे पर पानी की बौछार कर कर रहे था। अचानक एक मगरमच्छ ने अपने मजबूत जबड़ों में हाथी का पैर जकड़ लिया। हाथी ने अपने पूरे सामर्थ्य से मगरमच्छ को पछाड़ने का प्रयास किया किन्तु जल का राजा मगरमच्छ ही होता है। हाथी की समस्त शक्ति इस महाकाल-रूप ग्राह के समक्ष कमतर पड़ रही थी। काफी देर तक संघर्ष चला। हाथी की शक्ति क्षीण होती प्रतीत हो रही थी। उसके सजल नेत्रों से सामर्थ्य के अहंकार लोप हो रहा था और विवशता से वह चन्द्रमा की तरफ देखते हुए चीत्कार रहा था। ऐसा लग रहा था मानो वह परम ब्रह्म परमेश्वर को अंतिम बार पुकार रहा हो।
ब्रह्म मुहूर्त हो चला था। श्मशान घाट के निकट शिव मन्दिर से कोई भक्त महामृत्युजंय जाप कर रहा था। उस जाप के अनुनाद की हल्की सी ध्वनि वातावरण में गूँज रही थी। तभी पेड़ के सभी पक्षियों ने शोर मचाना शुरू कर दिया। शोर तेजी से बढ़ता जा रहा था। शायद सर्प उपर की ओर बढ़ रहा था। मैं उस कालसर्प से तनिक भी भयभीत नहीं हुआ। मेरी स्मृतियों में एक क्षण के लिए अन्नपूर्णा स्वरूप मेरी माँ का वात्सल्यपूर्ण चेहरा झिलमिलाया। मेरे नेत्रों में अश्रु बूँद उभरे। दूसरे ही क्षण मेरे समक्ष गरुड़ारूढ़ चतुर्भुज श्रीविष्णु का आकाश से आगमन हुआ। मैंने मुस्कुराते हुए धीरे से अपने नेत्रों के पट बंद कर लिए।