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कोरोना के कोढ़ पर बाढ़ का खाज होने के कारण बिहार सरकार डबल लोड टान रही है। यहाँ डबल इंजन की सरकार भी तो है। विरोधियों को इस डबल इंजन को भगठल बताने दीजिए। बेशक, बिहार सरकार का अचूक अस्त्र ‘मानव श्रृंखला’ कोरोना पर ‘कुप्रभावी’ है। इसके बावजूद कोरोना से निबटने के लिए देश के तमाम मॉडल से कोई प्रतियोगिता किए बिना बिहार सरकार चुपचाप अपना काम करने का काम रही है। कोरोना फैलने के डर से बिहार सरकार ने अपने मजदूरों को नहीं बुलाया। वे पैदल, साइकिल, ठेला, टमटम, टेम्पू, बस, ट्रक, ट्रैक्टर, डंपर, मालगाड़ी या श्रमिक स्पेशल से आ ही गये। बिहार सरकार देश के थके कोरोना मॉडल की तरह टेस्टिंग और क्वोरंटीन में तेजी दिखाने की जगह श्रमिकों के हित में गरीबोन्मुख और रोजगारोन्मुख हो गयी ताकि वे छठ पूजा तक बिहार में टिके रहें और …
वहीं बिहार का काहिल विपक्ष साल भर पढ़ाई न करने वाले छात्र जैसा बिहेव कर रहा है और चाहता है कि छठ पूजा के आस-पास होने वाला काम होली तक टाल दिया जाए। सरकार इस जाल में नहीं फँसने वाली। गरीबोन्मुख और रोजगारोन्मुख कब तक रहे वह? सरकार द्वारा इस तरह इग्नोर किये जाने के कारण बाढ़ और कोरोना दोनों उपेक्षित महसूस करते हुए आपस में लड़ रहे हैं। बिहार सरकार ने रणनीतिक चुप्पी धारण कर रखी है ताकि इस लड़ाई में एक निबट जाए। बचे हुए दूसरे से वह लड़ लेगी … छठ पूजा के बाद।
दल टूटते हैं, दिल टूटते हैं। कोई भड़ास नहीं होता लेकिन बाढ़ या बारिश के पानी से एक पुल के कथित रूप से टूट या बह जाने पर चिल्लम-पों होने लगा। वृहस्पतिवार की सुबह-सुबह चैनल चिल्लाने लगे और बिहार के विपक्षी नेता-नुती नकियाने लगे कि बिहार के गोपालगंज जिले में सत्तर घाट का बहुचर्चित पुल अपने उद्घाटन की माहवारी पूरा किए बिना गिर गया है। मन में जिज्ञासा हुई कि यदि पुल दो-तीन महीने चल जाता तो क्या इतना हो-हल्ला नहीं होता?
कायदे से पुल के ठेकेदार को पुल के लिए श्रद्धांजलि सभा आयोजित करनी चाहिए थी। इस सभा में पुल निर्माण से जुड़ी नौकरशाही के पूरे अमला-फमला को शामिल किया जाता। श्रद्धांजलि सभा में मुख्य अतिथि के रुप में उसी माननीय को बुलाया जाता जिन्होंने उसका उद्घाटन अपने पावन कर-कमलों से किया था। लोकतंत्र के तथाकथित सिरमौर मतदाता तो बिना बुलाए ही थपरी पीटने आ जाते। टूटे पुल की आत्मा को शांति तो मिल जाती, भड़ास से तो पुल की आत्मा भटकेगी।
पुल टूटने के समाचार पर जसपाल भट्टी याद आ गये जिन्होंने अपने प्रसिद्ध ‘फ्लॉप शो’ में ठेकेदार की भूमिका निभाते हुए अन्य ठेकेदारों को लाख रूपये से उपर की यह नेक सलाह दी थी, “अपने बनाए पुल के उपर से कभी मत जाना।“ फिर बिहार की वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति के आलोक में मन में यह आशंका उठी, “अभी एक माह पुराना पुल टूटा है, कहीं पन्द्रह साल की सब्र का बाँध न टूट जाए।“
आज जमाना आठ पहरिया चैनलों का है। ट्वीट से दागे जाने वाले समाचार के गोलों का है। फेक न्यूज का है, प्रेज न्यूज का है और क्लिक-व्यूज का है। जमाना इन सबके समानान्तर और इनके पूरक के रूप में चल रहे फैक्ट चेक का भी है। चाक-चौबन्द फैक्ट चेकर्स के कारण आज जब कोई समाचार आता है तो उसके संवाददाता से लेकर चैनल और स्वयं समाचार तक को इस बात की धुकधुकी रहती है कि समाचार किसी फैक्ट चेकर के मुँह का निवाला न बन जाए। यदि ऐसा हो जाए तो समाचार या संवाददाता या चैनल उस फैक्ट चेकर की फैक्ट चेकिंग किसी अन्य फैक्ट चेकर से करवाने का जतन करते हैं। यदि कोई समाचार पिपासु इस पूरी प्रक्रिया को देख ले तो वह समाचार ही नहीं बल्कि उसका उदिया-गुदिया भी समझ जाएगा। जो एक छिपाएगा वो दूसरा बता देगा। जिसे एक पर्वत बनाएगा उसे दूसरा राई सिद्ध कर देगा। एक में देसावर ठेलेगा, दूसरे में टानेगा। समाचार पिपासु का काम बस औसत निकालकर तथ्य तक पहुँचना है।
सत्तर घाट का समाचार चलाते हुए एक-एक एंकर-एंकराइन स्वाभाविक उत्साह और कृत्रिम गुस्से के साथ कम से कम सत्तर बार सत्तर घाट का नाम ले रहे थे। बिहार में विपक्ष के ‘जुआ’ नेता तेजू जी जूनियर पजामे से बाहर हुए जा रहे थे। एनडीए के सहयोगी लोजपा के ‘जुआ’ नेता चिराग पासवान भी क्रुद्ध थे। ‘जुआ’ शब्द से मत चौंकिये। बिहार के युवा नेता युवा नहीं होते बल्कि वे ‘जुआ’ होने का काम करते हैं और ये ‘जुआ’ लोग ‘जुआ’ ही हैं, अपनी पार्टी और राज्य के लिए । लेखक के अस्तित्वहीन सूत्रों ने बताया कि दोनों ‘जुआ’ नेताओं ने अपनी नाराजगी ट्विटर के अलावा सुबह के नाश्ते पर निकाली, हालाँकि मेनू का पता नहीं चल पाया। काँग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों के नेता भी नाराज थे। उनके गुस्से को लेखक ने इसलिए इग्नोर कर दिया क्योंकि वह बिहार के मतदाता भी हैं।
सत्तर घाट पुल के गिरने के समाचार का त्वरित फैक्ट चेक हुआ। समाचार सेमी-फेक न्यूज निकला। बिहार के पथ निर्माण मंत्री नंदकिशोर यादव पूरे फॉर्म में आ गए और बोले कि सत्तर घाट का पुल नहीं टूटा बल्कि उसे जोड़ने वाली सड़क और उस पर बनी एक पुलिया पानी के तेज प्रवाह में बह गये। जादो जी का अंदाज कुछ ऐसा था, गोया सत्तर घाट पुल तक पहुँचने वाली उनहत्तर नंबर की सड़क और उस पर बनी पुलिया पानी में बहने के लिए ही बनाए गये थे और इन्हें बनाने में सत्तर घाट की तरह राजकीय कोष का ढेबुआ नहीं बल्कि झाँवे का झिकटा लगा था।
बहरहाल, जादो जी के स्पष्टीकरण पर कोई लेखक जितना डीपली नहीं ढुका। चैनल नरम पड़कर राजस्थान निकल पड़े। बिहार के विपक्षी नेता कोरोना और बाढ़ पर बिहार के मुख्यमंत्री को घेरने लगे। बेपरवाह मुख्यमंत्री ने लेखक के पटनहिया सूत्रों से प्रतिक्रिया दी, “अरे भाई, ई लोग का काम है खाली बोलना। ई लोग नाकाम है। हम काम करते हैं – बिजली-सड़क के टिपकारी विकास का काम, राजनीति करने का काम, मानव शृंखला बनवाने का काम, शराबबंदी करने का काम, पैसा-अनाज बाँटकर गरीब को गरीब बनाये रखने का काम, कोरोना और बाढ़ को लड़ाने का काम और कभी कभी छरप जाने का काम। जनता अइसही थोड़े न कह रही है … बिहार में बहार है … अबहियो नीतिशे कुमार है।“
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