Saturday, March 15, 2025
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बिहार चुनावों की पड़ताल-3-छोटे दल – मंडली

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किसी भी चुनाव में छोटे दलों की अपनी भूमिका होती है। और कुछ नहीं तो वे वोटकटवा बनकर किसी के जीतने या हारने में अपना योगदान कर देते हैं। बिहार चुनाव भी अपवाद नहीं है। 143 सीटों पर लड़ जाने के कारण लोक जनशक्ति पार्टी बड़ी पार्टी नहीं हो जाती लेकिन इस लेख में लोजपा की चर्चा इसलिए नहीं है क्योंकि मैं उस पर एक भरा-पूरा लेख लिख चुका हूँ।

मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाले उपेन्द्र कुशवाहा 1995 में पहली बार जन्दाहा से विधानसभा चुनाव लड़े और हार गये। 2000 में उसी सीट से जीते। 2004 में नीतीश कुमार के समर्थन से वह बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष का नेता बने। बाद में नीतीश से मतभेदों के कारण वह एनसीपी में चले गये। 2009 में जदयू में उनकी वापसी हुई और 2010 में वे राज्यसभा भेजे गये। उनकी नीतीश कुमार से फिर नहीं निभी। नीतीश कुमार की राजनीति का आरम्भिक आधार था लव-कुश (कुर्मी-कोईरी) समीकरण। ऐसा माना जाता है कि कुश संख्या बल में अधिक हैं। शायद इसी दम पर ही 2013 में उन्होंने जदयू की राज्यसभा सदस्यता छोड़कर राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) बना ली।

उपेन्द्र कुशवाहा का राजनीतिक जीवन चरम पर तब था जब 2014 में उनकी पार्टी ने एनडीए सहयोगी के रूप में चुना लड़ा, मोदी लहर में लोकसभा की तीन सीटें जीतीं और वह केन्द्र में मंत्री बने। यह गठबंधन तब हुआ था जब भाजपा जदयू से छिटककर आत्मविश्वास की कमी से जूझ रही थी और उसे नये गठबंधन सहयोगियों की जरुरत थी। 2015 के विधानसभा चुनाव में कुशवाहा वोट साधने सकने की रालोसपा के क्षमता की पोल-पट्टी खुल गयी। रही सही कसर 2019 लोकसभा चुनावों में पूरी हो गयी जब वह एनडीए छोड़ महागठबंधन में आ गये। शायद यही कारण है कि महागठबंधन में राजद ने रालोसपा को लायबिलिटी मानकर किनारे कर दिया।

रोलोसपा के साथ आई बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के कभी भभुआ से गोपालगंज तक 6 विधायक थे लेकिन स्वतंत्र दलित राजनीति की बिहार में अपनी सीमाएँ रही हैं। आज दलित वोटों में जाति आधारित विभाजन है और इसके कई दावेदार हैं। इन पर दावे के लिए कोई चेहरा बसपा के पास नहीं है। इस कथित तीसरे मोर्चा का तीसरा दल है समाजवादी जनता दल डेमोक्रेटिक। इसके नेता पूर्व सांसद देवेन्द्र यादव शरद-लालू राजनीति की उपज हैं। कुशवाहा, दलित और यादव समीकरण गठबंधन का आधार रहा होगा, थोड़ा-बहुत गरज भी लेकिन गठबंधन की दिक्कत यह है कि आधार वोट है ही नहीं। मोर्चे के मुख्यमंत्री उम्मीदवार की पार्टी अपना आधार वोट साधना तो दूर अपने नेताओं को भी अपने साथ नहीं रख पाती। अंतिम परिणाम में इस गठबंधन को ढूँढ़ना बस औपचारिकता ही होगी। वोटकटवा के रूप में गठबंधन की भूमिका मिली-जुली होगी।

लालू यादव से पहले बिहार में काँग्रेसी राजनीति में यादवों के एकछत्र नेता रामलखन सिंह यादव थे लेकिन वह कभी मुख्यमंत्री नहीं बन सके। हाँ, 1991 में वह नरसिंह राव के कैबिनेट में मंत्री अवश्य बने पर शायद वह लालू काल में चमकी यादव राजनीति के दबाव में ही हुआ। जन अधिकार पार्टी के संस्थापक और मुखिया पप्पू यादव लालू यादव की यादव राजनीति को ढलान पर देखकर उस पर अपना रूमाल फेंकने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन वह यह भूल रहे हैं कि लालू इतने बड़े नेता इसलिए बने कि मंडल पश्चात ध्रुवीकरण के कारण यादवों के अतिरिक्त कई वर्षों तक उन्हें अन्य पिछड़ी जातियों का समर्थन भी मिला। आडवाणी की गिरफ्तारी से अल्पसंख्यकों पर उन्होंने ऐसा जादू किया कि वह राजद के संक्रमण काल में भी बहुत फींका नहीं पड़ा।

जमींदार परिवार में जन्मे पप्पू यादव के बारे में यह कहा जाता है कि जन सरोकारों के लिए संघर्ष करने वाले विपक्ष के पहले नेता वही होते हैं। एक बार उन्होंने कथित डॉक्टरी लूट पर भी अभियान चलाया था लेकिन वह अपने राजनीतिक जीवन में कभी भी पूर्णिया के अजित सरकार हत्याकांड और सहरसा में आनन्द मोहन के साथ अपने द्वंद्व की छाया से बाहर नहीं निकले। बाहुबली राजनेता का ठप्पा उनके राजनीतिक विकास में बाधक रहा है, रहेगा भी। दल और दल का संगठन कई वर्षों बाद भी एक ही जगह थमा हुआ है।

कोशी क्षेत्र में पप्पू यादव का प्रभाव है। वह स्वयं मधेपुरा और सहरसा से चार बार राजद और निर्दलीय सांसद रह चुके हैं। उनकी पत्नी रंजीत रंजन काँग्रेस टिकट पर सहरसा से लोकसभा के लिए चुनी गयी हैं। उनकी पार्टी जन अधिकार पार्टी को इसका फायदा मिलेगा। इस क्षेत्र में कई जगह वह लड़ाई में होगी या राजद का खेल बिगाड़ेगी। वह एक-दो सीटें जीत भी सकती है। उनकी सहयोगी पार्टी चन्द्रशेखर आजाद की जन अधिकार पार्टी के लिए उतना ही कहा जा सकता है जितना पार्टी का बिहार में जनाधार है। संभवत: पप्पू यादव ने यह गठबंधन भविष्य की राजनीति के लिए किया है या यह सोचकर कि एक से भले दो।

2013 में पटना के अखबारों में मुकेश सहनी का एक पूरे पृष्ठ का विज्ञापन छपता था – सन ऑफ मल्लाह। उन्होंने पटना में कई मल्लाह रैलियाँ की। उनमें भीड़ भी जुटायी और उससे यह दावा करने की कोशिश की कि मल्लाह जाति अब मुजफ्फरपुर के निषाद परिवार से इतर एक नेतृत्व चाहती है। 2015 विधान सभा चुनावों में भाजपा ने उनकी पार्टी विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) को हाथों-हाथ लिया किन्तु उसे सफलता नहीं मिली। 2019 के लोकसभा चुनावों में महागठबंधन के घटक के रूप में उनकी पार्टी ने कई सीटों पर चुनाव लड़ा किन्तु प्रदर्शन असरदार नहीं रहा। 2020 विधानसभा चुनावों से पहले वह एनडीए में शामिल हो गये। भाजपा कोटे से उन्हें 11 विधानसभा सीटें मिली हैं और एक विधान परिषद सीट का आश्वासन भी। एक क्षेत्रीय दल के रूप में वीआइपी की मान्यता मजबूत होनी तय है। एनडीए के सहयोग से वह कुछ सीटें भी जीतेगी और एनडीए को भी उनका थोड़ा-बहुत लाभ मिलेगा। बिहार में एक अति पिछड़ा नेतृत्व वाली पार्टी की जगह शेष है। देखना होगा कि क्या यह जगह वीआइपी की होगी।

जीतनराम माँझी महादलित वोट मजबूत करने के लिए नीतीश कुमार के तुरूप के इक्का थे लेकिन मुख्यमत्री बनकर वह अपनी मसखरी से भस्मासुर बनने पर तुल गये। एनडीए और महागठबंधन दोनों के साथ रहे पर कहीं अपना महत्व सिद्ध न कर सके लेकिन एक प्रतीक के रूप में स्थापित हो गये। लोजपा-जदयू विवाद में नीतीश कुमार ने उन्हें अपने साथ मिलाकर लोजपा पर दबाव डालने की कोशिश की। जदयू के महादलित प्रतीक के रूप में उनके हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा को जदयू कोटे से 7 सीटें मिल गयी हैं। पार्टी के कुछ विधायक विधानसभा भी पहुँचेंगे लेकिन पार्टी, नेतृत्व और दलित वोटों में हो रहे माइक्रो विभाजन के मद्देनजर पार्टी का भविष्य बहुत उज्जवल नहीं है।

वाम दल पूरे भारत में अपनी जमीन एक-दो दशक से खोए ही जा रहे हैं। बिहार के कुछ पॉकेट्स उनके गढ़ हुआ करते थे। भाकपा अभी कुछ जगह पर अपने आधार की बात कर सकती है पर माकपा का शायद ही कोई ऐसा पॉकेट हो। भाकपा-माले का कम से कम तीन चार जिलों में अपना जनाधार है। वाम दल महागठबंधन या राजद को थोड़ा लाभ देंगे लेकिन उतना नहीं जितना वे राजद से लाभान्वित होंगे। वाम दलों की समाप्ति का कारण बने राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन के घटक दल के रूप में चुनाव लड़ते हुए वे भले ही कुछ सीटें जीत जाएँ पर स्वतंत्र आधार के साथ विस्तार की कोई संभावना सिर्फ भाकपा-माले में ही दिखती है।

शिवसेना के 30-40 सीटों पर चुनाव लड़ने की खबर को हद से हद बिहार में चुनाव पश्चात किसी नॉटी फैक्टर की संभावना के तौर पर ही देखा जा सकता है। ओवैसी की पार्टी सीमांचल में कुछ सीटों पर लड़ेगी और महागठबंधन इस पर अवश्य ही चिन्तित होगा। आम आदमी पार्टी ने बिहार चुनाव नहीं लड़कर इस लेख को बिना कारण और बड़ा होने से बचा लिया है।

प्ल्यूरल्स की पुष्पम प्रिया चौधरी बिहार में चर्चा का विषय बनी हुई हैं। वह बिहार के तीस साल के तथाकथित लॉकडाउन को तोड़ने की बात करती हैं और असंभव से विकास दर का वादा करती हैं। उम्मीदवारों के रूप में साफ-सुथरे अनजान नामों को उतारती हैं। उम्मीदवारों की जाति के रूप में उनका पेशा बताती हैं और सबका धर्म बिहारी बताती हैं। लोगों से खोईंछा माँगकर उन्हें उसका मोल वापस करने की भावुक बातें भी करती हैं। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पढ़ी पुष्पम प्रिया जदयू के पूर्व विधान परिषद सदस्य की बेटी हैं और दरभंगा की रहने वाली हैं। एक षडयंत्र सिद्धांत यह है कि ये जदयू के बुलावे पर आई हैं ताकि पढ़े-लिखे एन्टी-इनकमबेन्सी वोटर महागठबंधन में जाने से रोके जाएँ लेकिन क्या पता भारत की राजनीतिक प्रयोगशाला बिहार में कोई अभिनव राजनीतिक प्रयोग हो रहा हो। देश में हुए ऐसे प्रयोग का हालिया इतिहास बहुत उत्साहजनक नहीं रहा।

प्ल्यूरल्स नाम और पिगैसस प्रतीक चिन्ह से बिहार की छोड़िए, पूरे भारत में भी कम ही लोग कनेक्ट करेंगे लेकिन पुष्पम की हिम्मत सराहनीय है। वह बिहार बदलने के लिए दस वर्ष माँग रही हैं। पुष्पम स्वयं कहती हैं कि राजनीति करना एक विशेषज्ञता भरा काम है। पहले चरण के लगभग आधे उम्मीदवारों का नामांकन रद्द होने के बाद उन्हें यह भी समझ आ गया होगा कि चुनावी राजनीति और भी विशेषज्ञता की माँग करता है। सीटें जीतने की उम्मीद तो पुष्पम को भी नहीं होगी लेकिन यदि बाँकीपुरी, पटना या बेनीपट्टी, दरभंगा में कहीं से यदि आँकड़ों के साथ साफ-सुथरा बोलने वाली पुष्पम स्वयं चुन ली जाती हैं तो यह सुखद आश्चर्य होगा। पार्टी का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि चुनावों के बाद पुष्पम बिहार में होंगी या लंदन में।

इन सारी छोटी पार्टियों से चाहे जितने लोग जीतें पर एक बात तय है कि संभवत: वाम दलों को छोड़कर कोई दल ऐसा नहीं है जिसके जीते हुए विधायक किसी भी चुनाव पश्चात जोड़-तोड़ में निर्णय के लिए अपने नेतृत्व पर निर्भर होंगे।




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