Friday, March 14, 2025
Homeमंडलीबिहार चुनावों की पड़ताल-4-राजद – मंडली

बिहार चुनावों की पड़ताल-4-राजद – मंडली

शेयर करें

लालू प्रसाद पटना विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति से सीधे राष्ट्रीय आन्देलन में आ गये। संपूर्ण क्रांति की अलख जगाते हुए जेपी-जनता लहर पर सवार होकर 1977 में 29 वर्ष की आयु में लोकसभा के लिए चुना जाना कोई छोटी उपलब्धि नहीं थी। 1977 में उन्होंने काँग्रेस के छपरहिया क्षत्रप रामशेखर सिंह को हराया था, 1980 में छपरा से ही सत्यदेव सिंह से हार गये लेकिन उसी वर्ष छपरा के ही सोनपुर विधान सभा क्षेत्र से वह लोकदल के विधायक बन गये। 1985 में भी उन्होंने अपनी सीट बरकरार रखी।

सामान्य रूप से चल रही लालू की राजनीति में बड़ा मोड़ तब आया जब बिहार विधान सभा में लोकदल व विपक्ष के नेता और बिहार की पिछड़ा राजनीति के पर्याय कर्पूरी ठाकुर का निधन हो गया। नेता पद के लिए हुए चुनाव में लालू ने अनूपलाल यादव और गजेन्द्र प्रसाद हिमांशु जैसे वरिष्ठ नेताओं को हराकर बिहार के राजनीतिक पटल पर अपने आगमन की धमक दर्ज की।

1990 में बिहार में कई पार्टियों से मिलकर बनी जनता दल की सरकार थी। इनमें से एक लोकदल भी था। लहर वीपी की थी, इसलिए उनके मुख्यमंत्री उम्मीदवार रामसुन्दर दास की जीत पक्की लग रही थी। देवीलाल ने लालू को अपना उम्मीदवार बना दिया। दोनों के बीच चुनाव होता तो दास जीत जाते लेकिन चन्द्रशेखर ने वीपी से अपनी खुन्नस में रघुनाथ झा को उम्मीदवार बना दिया। लगभग डेढ़ दर्जन वोट लेकर रघुनाथ झा ने दास की हार और लालू की जीत सुनिश्चित कर दी।

मुख्यमंत्री बनकर लालू सामान्य ढंग से ही काम कर रहे थे। कई लोगों का मानना था कि दबंग व्यक्तित्व के कारण नौकरशाही पर उनकी पकड़ अच्छी थी। तब सरकारी कार्यालयों और स्कूलों आदि में मुख्यमंत्री का औचक निरीक्षण चर्चा का विषय बना था। इसी बीच राष्ट्रीय राजनीति में बड़ा भूचाल आया। कमंडल चल ही रहा था, मंडल भी आ गया। वीपी सिंह नप गये। आडवाणी सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा पर निकल पड़े। इन दोनों मुद्दों को लालू से बेहतर भारत का कोई नेता नहीं भुना सका। मंडल के नाम उन्होंने पिछड़ों का जोरदार समर्थन प्राप्त किया और समस्तीपुर में आडवाणी को गिरफ्तार करके उन्होंने अल्पसंख्यकों पर ऐसा जादू चलाया कि उनके राजनीतिक संक्रमण काल में भी वह मंद नहीं पड़ा।

पूरा कार्यकाल वंचितों को आवाज देने के नाम पर कट गया। वंचित लालू के पक्ष में बोले भी और पूरी बुलंदी से बोले। पिछड़ों को सामाजिक सम्मान दिलाने के नाम पर सामाजिक समरसता को तिलांजलि दे दी गयी। जातीय विद्वेष का घृणित पक्ष दिखा। ‘भूरा बाल’ साफ करने के आह्वान की अति भी हुई। लालू ने पिछड़ा राजनीति वहाँ से शुरू किया था जहाँ कर्पूरी छोड़ गये थे लेकिन मंडल से शक्त होकर उन्होंने इस क्रम में कर्पूरी के विपरीत टकराव का रास्ता चुना। शासन और प्रशासन लुंज-पुंज होते गये। ‘भूरा बाल’ की तनी भृकुटियों और लालू विरोधी मीडिया के बावजूद 1995 में मतपेटियों से जिन्न निकला और लालू मुख्यमंत्री बने रहे।

1991 में इन्द्र कुमार गुजराल पटना से लोकसभा चुनाव लड़े थे। लालू का ‘गुजराल मने गुर्जर आ गुर्जर मने अहीर’ जुमला खूब चर्चित हुआ था। 1996 आते-आते तीसरे मोर्चे की राष्ट्रीय राजनीति में लालू महत्वपूर्ण हो चले थे। देवगौड़ा और गुजराल के बनने-बिगड़ने में लालू की बड़ी भूमिका रही। कहते हैं कि तब लालू ने मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री नहीं बनाए जाने के लिए अपना वीटो लगा दिया था।

सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि चारा घोटाला की छाया पड़ गयी। लालू जनता दल से 17 सांसदों को साथ अलग हो गये। राष्ट्रीय जनता दल बना। चारा घोटाले में वारंट जारी होने पर मुख्यमंत्री पद से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। पार्टी के वरिष्ठ नेता मन में लड्डू फोड़ रहे थे लेकिन तब तक पार्टी में शक्तिशाली हो चुके लालू के साले साधु और सुभाष विधायक दल की बैठक में आकर सीधे कहते हैं कि राबड़ी देवी हमारी नेता हैं। महारथी हाथ मलते रह गये और लालू ने जेल जाने से पहले अपनी लगभग अनपढ़ और राजनीति से सर्वथा अनभिज्ञ पत्नी को मुख्यमंत्री बनाकर लोकतंत्र की एक अभूतपूर्व छवि ही दिखा दी।

बिहार बदहाली के नये कीर्तिमान बना रहा था। नरसंहारों का दौर जारी था। अपहरण उद्योग की शक्ल ले चुका था। बिजली नदारद थी। कभी लालू ने बिहार की सड़कों को उनके युग की प्रसिद्ध सिने तारिका के गाल की तरह करने का दावा था। गाल चिकना करना तो दूर चेहरा ही गायब हो गया। बाहुबलियों और नक्सलियों का खौफ चरम पर था। पलायन सिर्फ रोजगार के लिए नहीं बल्कि जान-माल की सुरक्षा के लिए भी हो रहा था। पारिवारिक शादी के लिए शोरूम से गाड़ियाँ जबरदस्ती उठाई जा रही थीं। मनोंरंजक मसखरी के बीच चरवाहा विद्यालय खुल चुके थे और आम विद्यालय चरवाहों के विद्यालय से भी बेहाल हो चुके थे। वेतन और पेंशनभोगी बेहाल थे, अपराधी और सत्ता के पालक-बालक निहाल। बिहार देश से बेहाथ होता दिख रहा था। इन सबके बावजूद 2000 चुनाव में राजद ही सबसे बड़ा दल बना। राबड़ी फिर मुख्यमंत्री बन गयीं। एक खास बात यह रही कि जब जब लालू कमजोर होते काँग्रेस अपनी क्षीणता की कीमत देकर उन्हें मजबूती दे देती।

अगले पाँच साल भी पुराना दौर ही जारी रहा। फरवरी 2005 में त्रिशंकु विधानसभा में राजद 75 सीटों के साथ बहुत कमजोर हो गया था। काँग्रेस केन्द्र में आ चुकी थी। लालू के प्रभाव में राष्ट्रपति शासन लग गया लेकिन नवंबर 2005 के चुनावों में नीतीश के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बन गयी। यहीं लालू का पराभव प्रारम्भ हुआ। वह रेल मंत्री रहे लेकिन पुराना जलवा नहीं रहा। 2010 में राजद को बिहार विधान सभा में सिर्फ 28 सीटें मिलीं, राबड़ी सोनपुर और राघोपुर से चुनाव हार गयीं। तब से राजद का संक्रमण काल ही चल रहा है, 2015 में थोड़ी संभावना बनी लेकिन वह अल्पकालिक ही रही।

2020 का चुनाव महागठबंधन और एनडीए के बीच ही है। राजद महागठबंधन की धुरी है लेकिन राजद स्वयं किस स्थिति में है। लालू के साले दृश्य से गायब हैं। राजनीतिक विरासत तेजस्वी को सुपुर्द करके लालू जेल में हैं। MY के Y में बड़ी सेंध लग चुकी है पर M नहीं टूटा, जदयू और लोजपा चाहे जितने सेकुलर बन लें। बिहार में सेकुलर होने की एकमात्र परिभाषा यह है कि आप भाजपा के साथ नहीं हैं। इस परिभाषा में राजद का रिकॉर्ड बेदाग है। अति पिछड़े और दलित वोटों के नये व मजबूत दावेदार मैदान में हैं, राजद पर जंगलराज का ताना अलग से है।

MY की फिक्र छोड़कर तेजप्रताप तेजस्वी के समानान्तर Mine का बेसुरा राग छेड़ने लगते हैं। राजद के तमाम पोस्टर्स पर सिर्फ तेजस्वी का फोटो होना भी Mine का ही खेल है। तेजस्वी समझदार दिखने की कोशिश करते हैं पर तेजप्रताप की राजनीतिक समझ इस बात से झलकती है कि वह राजद को समन्दर बताने के लिए राजद के एक ध्रुव रहे रघुवंश सिंह को एक लोटा पानी कह जाते हैं। मीसा भारती भी दो की लड़ाई में मूकदर्शक रहती हैं कि कहीं तीसरे का फायदा हो जाए।

महागठबंधन ने अपना विकासोन्मुख घोषणा पत्र जारी किया है। पहली कैबिनेट बैठक में 10 लाख नौकरी, शिक्षा पर बजट का 12 प्रतिशत खर्च, अस्पताल और विश्वस्तरीय आधारभूत संरचना के वादे किए गये हैं। तथाकथित किसान विरोधी कानून को स्क्रैप करने की बात भी है। कहना ही होगा कि बिहार की राजनीति का यह नीतीश फैक्टर ही है कि राजद के नेतृत्व वाला गठबंधन भी विकास की बात करने पर बाध्य है। हाँ, नीतीश द्वारा किये गये विकास पर बहस हो सकती है पर मतदाता के निर्णय का एक आधार सापेक्षता तो होता ही है। जंगलराज क्रेडेंशियल रखने वाला राजद विकास की बात करते हुए जनता को कितना विश्वसनीय लगेगा, यह देखने वाली बात होगी।

वर्षों से सत्ता से बाहर रही राजद का चुनावी संसाधन उसकी एक कमजोर कड़ी है। लालू की अनुपस्थिति में चुनाव प्रबंधन भी उतना कुशल नहीं होगा। रघुवंश सिंह रहे नहीं और बचे हुए वरिष्ठों को तेज-तेजस्वी कितनी अहमियत देंगे, ये साफ दिख रहा है। 15 साल की एंटी-इनकमबेन्सी राजद के पक्ष में होनी चाहिए लेकिन उसे भुनाने के लिए भी कौशल की आवश्यकता है। तेजस्वी मुख्यमंत्री उम्मीदवार भले हैं पर उनका कौशल परीक्षण अभी शेष है।

राजद के समर्थक लोजपा फैक्टर में अपनी जगह देखते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो जंगलराज के खौफ को इस आधार पर बेअसर बताते हैं कि पिछले 15 साल में मतदाताओं की एक ऐसी पीढ़ी आ गयी है जिसने वह कथित जंगलराज नहीं देखा। यह बात तार्किक लगती है लेकिन यही लोग उसी दौर में बने राजद के MY समीकरण को उसकी मजबूती बताते हैं। तो फिर वह पीढ़ी MY से कैसे कनेक्ट करेगी जिसने उसके बनने का दौर नहीं देखा है।

महागठबंधन में वामपंथियों का साथ होना राजद के लिए प्लस है और महागठबंधन में काँग्रेस का होना काँग्रेस के लिए। महागठबंधन के सभी दल राजद के भरोसे ही हैं जो कभी सबसे बडे आधार वोट वाला दल था। अब संभवत: वह दल भाजपा है लेकिन शायद अब भी आधार वोट के मामले में राजद जदयू से बड़ा है। आधार वोट बड़ा होना आपके बड़े सीट शेयर की गारंटी नहीं है। फिर भी राजद के लिए यह चुनाव अस्तित्व बचाने का चुनाव इसलिए नहीं है कि उसकी स्थिति 2010 जैसी बिल्कुल नहीं होने वाली। नीतीश की घटती लोकप्रियता और एनडीए में लोजपा द्वारा की जा रही कॉमेडी कुछ तो लाभ देगी ही। एक और प्रश्न अहम है कि राजद ने जनता के बीच विपक्ष के रूप में क्या संदेश दिया है। नीतीश अपने काम पर वोट माँग रहे हैं, राजद का एक ही काम दिख रहा है – हम दो हमारे नौ।

आधार वोटों के संख्या बल में महागठबंधन कमजोर है। चुनावी संसाधन और प्रबंधन में भी एनडीए मजबूत है लेकिन मतदाताओं के मन की कौन जानता है। क्या पता नीतीश उतने अलोकप्रिय हो चुके हों कि लोग जंगलराज के खौफ को भी भूला बैठें। राजद के मन में एक दबी और मद्धिम आस यह भी होगी कि चुनाव पश्चात संख्या बल कुछ ऐसा रहे कि एनडीए में सब कुछ सामान्य न हो और नीतिश एक बार फिर महागठबंधन में आ जाएँ। तेजस्वी उपमुख्यमंत्री बनकर भी खुश ही होंगे लेकिन न तो नीतिश पिछला अनुभव भूले होंगे और न भाजपा ने ही कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं।




Source link

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

RECENT COMMENTS

casino online slot depo 10k bonus new member slot bet 100 slot jepang
slot depo 10k