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‘बिहार किधर’ के यक्ष प्रश्न पर आँकलन और विश्लेषण का दौर जारी है। ये सही भी हो सकते हैं और गलत भी। लोकतंत्र की एक मर्यादा यह भी है कि ऐसे आँकलन और विश्लेषण चुनाव परिणामों से 100 प्रतिशत मेल न खाएँ। एक बँधी हुई बात यह भी है कि बिहार चुनावों पर एक बिहारी के विश्लेषण में थोड़ा-बहुत उसके ‘मन की बात’ भी होगी।
एक आम धारणा बनाने की कोशिश हो रही है कि बिहार चुनावों के मुद्दे कतई स्वस्थ और विकासोन्मुख हो गये हैं। महागठबंधन के 10 लाख नौकरी और एनडीए के 19 लाख रोजगार के वादे हों, लोजपा का ‘बिहार फर्स्ट बिहारी फर्स्ट’ जुमला हो या अन्य दलों/ गठबंधनों के तमाम मुद्दे हों, सबमें यह धारणा सतही रूप से दिखती भी है लेकिन ये सारे वादे जेनरिक हैं। 10 लाख नौकरी का वादा पॉपुलिस्ट दिखता है और 19 लाख रोजगार के सृजन का वादा उसकी एक स्वाभाविक राजनीतिक प्रतिक्रिया है।
पूरे देश से तीन गुनी अधिक बेरोजगारी बिहार में है लेकिन कम बेरोजगारी वाले राज्यों के लोगों को अधिकांश रोजगार निजी क्षेत्र में मिले हैं। बिहार में निजी क्षेत्र के विस्तार पर कोई दल अपना विश्वसनीय रोडमैप नहीं दे सका। शायद इसलिए कि वैसी कोई मंशा ही नहीं है, इच्छाशक्ति तो बिल्कुल नहीं। बिजली-सड़क के बाद क्या पर एनडीए का चुप्पी कानफोड़ू है। वहीं महागठबंधन के समक्ष अपना इतिहास बदल देने की चुनौती है।
केन्द्र से मिली सहायता राशि को आधा-अधूरा खर्च कर देना भर विकास नहीं है। राज्य अपने संसाधनों से खेती, व्यापार, शिक्षा, स्वास्थ्य और आधारभूत संरचना के लिए भी सक्षम हो तो बात बने। एनडीए के विकास का सच यही है कि वह उद्योग स्थापना और व्यापार विस्तार में पूरी तरह असफल रही जिससे उसके पास स्वयं के संसाधन सृजित नहीं हुए और उसका विकास केन्द्रीय सहायता राशि को खर्च करके ‘टिपकारी’ करने तक सीमित हो गया। महागठबंधन के तथाकथित जंगलराज में यह भी नहीं हो सका जिससे विकास ठप्प रहा।
बिजली के मुद्दे पर बिहार सरकार ‘लालटेन’ को बुझा देने दावा कर सकती है। महागठबंधन इस मुद्दे पर बेहद डिफेंसिव है क्योंकि 1990 से पहले बिहार में बिजली की स्थिति उतनी बदहाल नहीं थी जितनी उसके 15 वर्ष के शासन में हो गयी। सड़कों पर भी लगभग यही हाल है। तब और अब की कानून और व्यवस्था में आसमान और पाताल का फर्क है। आज के बिहार में उन 15 साल की कानून व्यवस्था की स्थिति और सामाजिक विद्वेष की बातें काल्पनिक ही नहीं नाटकीय भी लगेंगी। स्वास्थ्य के मामले में अस्पतालों के भवन चमक रहे हैं लेकिन डॉक्टरों की संख्या पहले अधिक थी। रिटायर हुए डॉक्टर्स से बहुत कम नियुक्तियाँ एनडीए शासन में हुईं और वो भी तदर्थ। स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता बढ़ी नहीं पर कोरोना नियंत्रण में राज्य ने ठीक-ठाक काम किया।
शिक्षा का पतन 1980 के दशक में ही आरम्भ हो गया था किन्तु 1990 के बाद उसकी रफ्तार तेज हो गयी। 2005 के बाद गिरावट रूकी, शायद और नीचे जाने का स्कोप ही नहीं था। लाखों संविदा शिक्षक बहाल हुए लेकिन सरकार ने उनसे पढ़ाई कम कराया और वोटलोलुप नीतियों को लागू अधिक करवाया। विद्यालयों के भवन चमकने लगे लेकिन काश, शिक्षा भी दमक पाती। मंडल विरोधी आन्दोलन में और लालू के कुशासन में त्रिवर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम पंचवर्षीय हो गये। दुर्भाग्य से आज भी वे पंचवर्षीय ही है। अलबत्ता कभी अपने वेतन के लिए महीनों की बाट जोहने वाले महाविद्यालयों शिक्षकों को आज समय से वेतन और पेंशन मिल जाता है। काश समय से नियमित कक्षाएँ भी चल पातीं, समय पर परीक्षाएँ हो पातीं और परिणाम आ जाते। प्रतियोगिता परीक्षाओं में पहले की तरह ही न कोई नियमितता है और न ही पारदर्शिता।
खेती के विकास के लिए सरकार से बाढ़ और सूखा अनुदान हर साल मिलता है। कई जगह बाढ़ और सूखा दोनों के लिए सहायता मिल जाती है लेकिन आज आजीविका के रूप में खेती पर निर्भरता 1990-2005 से भी कम है। किसानों की उपज की खरीद के नाम पर बिहार में कॉमेडी होती है। बिहार में खेती ‘हारे को हरि नाम’ जैसा पेशा हो गया है। यहाँ ‘कुछ नहीं करते हैं’ उसके लिए कहा जाता है जो नौकरी न मिलने के कारण मन मारकर खेती करने को बाध्य हो जाता है। खेती पर एनडीए या महागठबंधन दोनों के पूरे अंक काट लिए जाने चाहिए और बिहार के किसानों को इस बात के लिए साधुवाद दिया जाना चाहिए कि वे प्रतिकूल परिस्थितियों में विकसित राज्यों के किसानों की तरह आत्महत्या जैसा अतिवादी कदम नहीं उठाते, भले ही उन्हें अपना पेट पालने के लिए दिल्ली जाकर सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करनी पड़ जाए।
पलायन आज भी जारी है। बाहर गये लोगों की संख्या की एक झाँकी कोरोना के रिवर्स पलायन में देखी जा चुकी है। हाँ, महागठबंधन के विपरीत एनडीए यह दावा कर सकता है कि आज पलायन सिर्फ रोजगार के लिए हो रहा है, कानून व्यवस्था के लोप के कारण नहीं। महिलाओं की स्थिति 15 साल में सुधरी है। चाहे पंचायत आरक्षण हो या बालिकाओं के लिए साइकिल योजना और कुछ हद तक शराबबंदी भी लेकिन उतनी नहीं जितना एनडीए का दावा है। ‘मुखिया पति’ और ‘पार्षद पति’ जैसे संविधानेत्तर पद बिहार में चलन में है। शराबबंदी तस्करी को बढ़ावा दे रहा है लेकिन क्या कोई दल इसे हटाने की साफ-साफ बात कर रहा है? जल, जीवन और हरियाली से हुए हरे लोगों को देखकर मन गदगद हो जाता है। नौकरशाही को मिली खुली छूट ने ‘कुछ भी घूस से’ को अघोषित नियम है।
अंतिम परिणामों में लिट्टी बने या कचौड़ी लेकिन आटा जातीय गणित और संख्या बल का ही होगा। सभाओं में आती भीड़ किसी की लोकप्रियता का भी पैमाना हो सकती है तो लोकतंत्र में किसी से हो रही उब और खीझ का भी। दोनों से आस और निराशा तुलनात्मक ही होगी। दो मुख्य गठबंधनों के अलावा अन्य दलों या गठबंधनों के दोनों पर पड़ने वाले प्रभावों और दोनों गठबंधनों के आपसी सिंक पर भी निर्भर होगा।
महागठबंधन का मुखर वोट बैंक MY ही है। Y का एक बहुत बड़ा हिस्सा सरकार से कोई आकांक्षा रखने की जगह जातीय गर्व की पुर्नबहाली के लिए लड़ रहा है लेकिन Y भी भाजपा या जदयू के Y उम्मीदवार जिताने के लिए राजद के गैर-Y को वोट नहीं करेंगे। M का वर्ग भाजपा विरोध के अपने सिंगल एजेन्डे पर हमेशा की तरह बुलंदी से कायम है। ईबीसी और दलित में राजद की पैठ दशक भर से कम हो गयी है। वाम पार्टियाँ और खास तौर पर भाकपा-माले इसे कितना पूरा करेगी, कहना कठिन है। महागठबंधन में काँग्रेस सिर्फ लाभार्थी हो सकती है, लाभान्वित करने वाली नहीं। परिणाम इस बात पर भी निर्भर करेगा कि महागठबंधन एंटी इनकमबेन्सी या उब-खीझ जनित कितने वोट ले पाता है। जीतने के लिए ऐसे वोटों से उसे अपना वोट प्रतिशत कम से कम 10 प्रतिशत बढ़ाना होगा।
एनडीए को वोट करने करने सवर्ण और बनिया तो हैं ही। सवर्ण इधर-उधर भी छिटकेंगे। कुछ नीतीश से हो रही ऊब और खीझ में तो कुछ जातीय आग्रहों में महागठबंधन या लोजपा या किसी अन्य का प्रत्याशी जिताने के लिए। महिलाएँ, महादलित और ईबीसी सबसे कम मुखर वोटर हैं और ये नीतीश के वैसे समर्थक हैं जिन्हें 1990 के दशक में लालू अपना जिन्न कहा करते थे। महादलित प्रतीक जीतनराम माँझी के एनडीए में होने के कारण इनका झुकाव एनडीए के लिए होगा। मुकेश सहनी ईबीसी वोटर के बड़े प्रतीक के रूप में उभर रहे हैं और आज वह भी एनडीए में हैं। यह पक्का नहीं है कि माँझी और सहनी किसी चुनाव पश्चात जोड़-तोड़ में साथ रहेंगे ही। फिलहाल ये एनडीए की थोड़ी मदद तो करेंगे ही।
एनडीए की असली चुनौती यह है कि नीतीश से लोगों की नाराजगी से निबटना। नाराज लोगों में एक छोटा हिस्सा राजद को भी वोट करने पर आमादा है लेकिन एक बड़ा हिस्सा नाराज तो है लेकिन महागठबंधन को वोट करते हुए सहज नहीं है। इसे बड़े हिस्से को अंत में जीत लेने में एनडीए कामयाब भी हो सकती है और यदि नहीं हुई तो उसे परेशानी होगी। किसी भी आँकलन में दोनों मुख्यमंत्री उम्मीदवार की तुलना में दूसरे नीतीश के पसंगे में भी नहीं आएँगे। भीड़ तो 2019 में भी आ रही थी, 2015 में नरेन्द्र मोदी के लिए भी खूब उत्साह था। शेष इतिहास है।
लोजपा फैक्टर ऐसा है जिसने आरम्भ में बुरी तरह पिछड़ते दिख रहे महागठबंधन को सँभलने का अवसर दे दिया। जदयू को डेंट करना एनडीए को भी भारी पड़ रहा है। भाजपा द्वारा कई जिला कमेटियों की बर्खास्तगी में यह साफ दिख रहा है कि ‘चुपचाप बंगला छाप’ खतरनाक हो सकता है। यह महत्वपूर्ण है कि लोजपा कितनी सीटों पर जदयू को डेंट करेगा, यह नहीं कि वह 2 सीटें जीतेगा या 5। रालोसपा-ओवैसी-बसपा में रालोसपा व बसपा दोनों तरफ नुकसान कर सकते हैं पर ओवैसी महागठबंधन की नींद उड़ा रहे हैं। पप्पू यादव के कारण भी महागठबंधन की क्षति हो रही है पर कहीं कहीं वे एनडीए का भी वोट काटेंगे। प्ल्यूरल्स की पुष्पम स्वयं जीत जाएँ तो यह बड़ी उपलब्धि होगी लेकिन उनकी पार्टी को मिले वोट एनडीए के हिस्से से ही आएँगे।
एनडीए बिजली-सड़क-कानून व्यवस्था की अपनी उपलब्धि के साथ 15 वर्ष की ऊब और खीझ एवं नीतीश कुमार से नाराजगी की लायबिलिटी लिए चुनाव में उतरा है। महागठबंधन राजद पर निर्भर है जो MY के भरोसे है लेकिन जंगलराज की बहुत बड़ी लाइबिलिटी भी लिए खड़ा है। शेष अपनी जीत के लिए कम दूसरों की हार के लिए अधिक लड़ रहे हैं।
इन सबके बीच कम से कम मैं अब भी एडवांटेज एनडीए देखता हूँ। छरपा-छरपी की पूरी संभावना है, सब कुछ आने वाले अंकों पर निर्भर होगा। सुपर ओवर की संभावना भी पूरी तरह खारिज नहीं की जा सकती। बिहार बिहार बना रहेगा, आशा करें कि इस बार बहार भी आ जाए।