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बात अँग्रेजों के जमाने की है। दो लोगों में मारपीट हो गयी। मारपीट का कारण खूँटा गाड़ने पर हुआ विवाद था। दोनों पक्षों के खूँटा विवाद पर पंचों ने पंचायत भी की थी। दोनों पक्ष पंचायत का निर्णय मानने की बात करते रहे लेकिन खूँटा अपने मनचाहे स्थान पर गाड़ने की जिद लिए भी बैठे रहे। यह स्थिति आज भी भारत में आम है। लोग या पक्ष पंचायत या न्यायालय के निर्णय के सम्मान की बात तो करते हैं लेकिन निर्णय मनोनुकूल होने की अकथित शर्त भी रख देते हैं।
पंचायत के प्रयासों के बावजूद खूँटा विवाद का कोई शांतिपूर्ण समाधान नहीं निकला। शांति के लिए युद्ध अवश्यम्भावी हो गया। खूँटा गड़ा नहीं बल्कि एक पक्ष के सिर पर पड़ा। स्वाभाविक है कि यह काम दूसरे पक्ष ने किया। सिर फटना था, फट गया। चोटिल जन अस्पताल ले जाए गए। अस्पताल ने पुलिस बुला लिया। कोतवाल दोनों पक्षों को बड़े साहब के पास ले गये जो अँग्रेज थे। साहब को न पूरी हिन्दी आती थी और न कोतवाल और दोनों पक्षों को पूरी अँग्रेजी।
साहब ने पूछा, “ये ट्या हुआ है?”
चोटिल सज्जन बोले, “इसने मेरा सिर खूँटे से मारकर फोड़ दिया है।“
“व्हाट इज कूँटा?”
चोटिल सज्जन सहित कई लोगों ने साहब को खूँटा का मतलब समझाने की कोशिश की लेकिन वे असफल रहे। साहब की त्योरियाँ चढ़ रही थीं। मामले को बेकाबू होते देख कोतवाल ने मोर्चा सँभाला …
लंबे लंबे बंबू सर
काटिंग उसको स्मॉल सर
ठोकिंग उसको ग्राउंड सर
वही खूँटा सर वही खूँटा सर
उसी क्षेत्र की एक और घटना का जिक्र करते हैं जहाँ खूँटा प्रकरण घटित हुआ था। घटना 80 के दशक की है। तब प्रखंड कार्यालय परिसर में कोषागार भी हुआ करते थे। वहाँ दो तीन पुलिस वाले पहरा देते थे। शाम के बाद यदि कोई वहाँ से गुजरे तो पुलिस वाले बुलन्द आवाज में उसे चार्ज करते, “हूज दर?” ‘हूज दर’ अँग्रेजी के ‘Who is there’ का अपभ्रंश था। 95 प्रतिशत से अधिक लोग बिना अर्थ समझे हाथ उठाकर कह देते, “फरेंड।” पुलिस वाले उन्हें जाने देते और किसी प्रकार का संदेह होने पर उन्हें रोक लेते।
हुआ यूँ कि रात लगभग आठ बजे अपनी धुन में मस्त एक पियक्कड़ बकबक करता हुआ कोषागार के सामने से गुजरा। पुलिस वाले गरजे, “हूज दर।“ पियक्कड़ बेपरवाह चलता रहा। ‘हूज दर … हूज दर’ की आवाज आती रही। पियक्कड़ चिढ़ गया। उसने कहा, “आ के बतावs तानी।” वह पुलिस दल के पास पहुँचा और बिना कुछ कहे उनसे उनकी एक बंदूक झटक कर ले भागा। तीनों पुलिस वाले हाथ में टॉर्च लिए उसके पीछे भागे। पियक्कड़ भागता रहा, पुलिस वाले चहेटते रहे। तीन होने के कारण पुलिस वालों के पास दौड़ते हुए सुस्ता लेने की लग्जरी थी। एक सुस्ताता और दो चहेटते। सुस्ताने की स्थिति में पियक्कड़ पकड़ा जाता।
दौड़ते दौड़ते पियक्कड़ हाँफ गया। अब उसका पकड़ा जाना तय था। तभी उसकी त्वरित बुद्ध का बल्ब जल उठा। वह खड़ा होकर हाँफने लगा। हाँफते हुए उसने बंदूक पुलिस वालों की ओर तान दी। पुलिस वाले भी सहम कर अपनी जगह खड़े हो गये। पियक्कड़ के सुस्ताने के बाद चहेटा का दूसरा दौर शुरू हुआ। ये लोग एक किमी की परिधि में गोल-गोल घूम रहे थे। अंत में किसी तरह पियक्कड़ को गाँव वालों की सहायता से काबू में किया गया।
मैंने यह भी सुना है कि ‘हूज दर’ के वृहद रूप का प्रचलन सेना में भी था। वहाँ पूछा जाता था, “हूज दर, फंडाफो” अर्थात Who is there? Friend or Foe? मैं आज तक यह नहीं समझ पाया या यूँ कहिए कि मैं कल्पना भी नहीं कर सका कि ‘हूज दर फंडाफो’ का उत्तर कोई ‘Foe’ भी देता होगा। यदि वैसा दुस्साहसी कोई निकले भी तो यह कल्पना सहज है कि उसका हश्र क्या होता होगा।
उपरोक्त दोनों घटनाएँ कम पढ़े-लिखे लोगों की है। अब जरा ईए-बीए और एमए-ओमे पास लोगों की भी बात कर लेते हैं। 90 के दशक के उत्तरार्द्ध तक मेरे यहाँ शादियों में कन्या निरीक्षण की विधि के समय मंडप में वर और वधु पक्ष में वाद-विवाद प्रतियोगिता की परम्परा थी। प्रतियोगिता भोजपुरी, हिन्दी और अँग्रेजी भाषा तक में होती थी और विषय विविध हुआ करते थे। प्रतियोगिता के लिए दोनों पक्ष विद्वान आयात भी करते थे। ऐसा ही एक वाद-विवाद मेरी बुआ की बेटी का शादी में चल रहा था। मेरी बाल बुद्धि के लिए बहस का स्तर बहुत उँचा था लेकिन एक बात मेरे पल्ले भी पड़ गयी।
बहस में वर पक्ष लगभग हार चुका था। उनके कई प्रतिभागी मैदान छोड़कर जनवासे में जाने लगे थे। वधु पक्ष जीत पर प्रसन्न था। वर पक्ष के एक जन से यह देखा नहीं गया और वह पिनक कर बोले, “None can challenge me here. I am a physician.” वह सज्जन फिजिक्स में एमएमसी थे। मेरे बाबूजी ने मीठी सी चुटकी ली, “Are you a doctor? I think that you are a physicist, not a physician. I mean भौतिकवेत्ता.” हँसी का एक फव्वारा फूटा और पिनके हुए सज्जन पैर पटकते हुए जनवासे भाग गये।
पहली घटना में बड़े साहब कोतवाल के काव्य पाठ से खूँटा समझ समझ गये। कहते हैं कि उन्होंने अपने साहबों और साहबों ने अपने हाकिमों को यह फीडबैक दिया था कि अँग्रेजी को दुर्दशा से बचाने के लिए भारत से वापस चलने का समय हो गया है। पता नहीं कि अँग्रेज भारत से ऐसे फीडबैक के कारण वापस गये या द्वितीय विश्व युद्ध से जर्जर हुई अपनी अर्थव्यवस्था और क्षीण हुई सैनिक शक्ति के कारण या गाँधी बाबा के सत्याग्रह से या क्रांतिकारियों के ठाँय-ठाँय से पर अँग्रेज चले गये। अँग्रेजों के जाने के बाद भी अँग्रेजी को बख्शा नहीं गया। अँग्रेजों का बदला चुन चुन कर अँग्रेजी से लिया गया। फिल्म ‘शोले’ के ‘चक्की पीसिंग’ से लेकर ‘राजा हिन्दुस्तानी’ के ‘यू कम कम मेम साब’ उसी प्रतिशोध का हिस्सा हैं। समाज में जारी इस प्रतिशोध की सूची लंबी है। यदि मैं उसे बना दूँ तो पढ़कर आपके सिर में ‘हेडेक’ ही नहीं होगा बल्कि आप ‘भारीनेस’ भी ‘फीलने’ लगेंगे।
अँग्रेजी से अँग्रेजों का प्रतिशोध लिए जाने की होड़ के बीच एक विरोधाभास यह है कि अटक से लेकर कटक तक हर गाँव और शहर में अँग्रेजी सीखने और अनेक जगहों पर बिना अँग्रेजी सीखे ही अँग्रेजीदां बनने की होड़ भी लगी हुई है। यह कई जगहों पर हिन्दी और किसी अन्य मातृभाषा की कीमत पर भी हो रहा है। हिन्दी पखवाड़े में लिखे गये इस आलेख का उद्देश्य अँग्रेजी का अपमान करना नहीं है। लेखक का मानना है कि अँग्रेजी का विरोध हिन्दी प्रेम की अनिवार्य शर्त नहीं है। सनद रहे, यदि अँग्रेजी का भुरकुस किया जाता रहेगा तो हिन्दी की शीतलबुकनी भी बनेगी।
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