Sunday, December 22, 2024
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लॉकडाउन हटाना कब होगा फायदेमंद, जानें क्या कहती है AIIMS के डॉक्टरों की स्टडी – Coronavirus ease lockdown after peak or increase tests says aiims study on covid 19 diu

  • चीन के वुहान में दो महीने बाद ढील दी गई, फिर पूरे शहर की हुई टेस्टिंग
  • लॉकडाउन में ढील दिए जाने से कोरोना के केस तेजी से बढ़ सकते हैंः स्टडी

क्या भारत लॉकडाउन खत्म करने के लिए तैयार है? या Covid-19 केसों के शिखर तक पहुंचने के बाद कुछ हफ्तों तक इंतजार करना चाहिए? क्या लॉकडाउन को बढ़ाने से दूसरी लहर में देरी होगी और भारत को अपने हेल्थकेयर सिस्टम को तैयार करने के लिए और अधिक वक्त मिलेगा? क्या लॉकडाउन खत्म होने के बाद टेस्टिंग बढ़ाने से संक्रमण घटेंगे?

ऐसे और अन्य कई सवालों को iCART ने अपनी स्टडी में छुआ है. यह AIIMS के नेतृत्व में देश के शीर्ष संस्थानों के डॉक्टरों और शोधकर्ताओं की एक सामूहिक कोशिश है. ये उस वक्त पर है जब भारत खुद को लॉकडाउन से ढील के लिए तैयार कर रहा है.

एम्स के डॉक्टरों- गिरिधर गोपाल परमेश्वरन, मोहक गुप्ता, सप्तर्षि सोहम मोहंता और उनकी टीम की ओर से की गई स्टडी में सुझाव दिया गया है कि भारत को अपना शिखर निकलने के बाद कुछ हफ्तों तक इंतज़ार करना चाहिए, जिससे कि लॉकडाउन के असल लाभों का फायदा उठाया जा सके.

स्टडी में कहा गया है, “लॉकडाउन को पूरी तरह हटाए जाने पर, तारीख चाहे कोई भी हो, हमने पाया कि परिवर्तनीय विलंब के बाद सक्रिय केसों की संख्या तेज़ी से बढ़ेगी. हमने ऑब्जर्व किया कि शिखर निकल जाने के बाद लॉकडाउन में ढील दिए जाने में देर करने से वो समय अंतराल बढ़ जाता है जो ढील की तारीख और सक्रिय केसों की नई बढ़ोतरी की तारीख के बीच होता है.”

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स्टडी में आगाह किया गया है, “हालांकि, भारत अभी अपने शिखर तक नहीं पहुंचा है क्योंकि कोरोना वायरस केसों के दैनिक जुड़ाव की 7-दिन की रोलिंग औसत में अभी तक गिरावट नहीं देखी गई है. ऐसी स्थिति में, लॉकडाउन में ढील दिए जाने से कोरोना वायरस केस तेजी से बढ़ सकते हैं.’’

स्टडी के मुताबिक “देश भर में लॉकडाउन का अचानक और पूरी तरह से हटाया जाना व्यावहारिक विकल्प नहीं है. क्योंकि यह कदम ‘हर्ड इम्युनिटी’ (झुंड प्रतिरक्षा) की गैर मौजूदगी में केसों की संख्या में तेज बढ़ोतरी होते देखेगा. पर्याप्त लंबाई और असर वाला लॉकडाउन अंततः सक्रिय केसों को शिखर तक ले जाकर धीरे-धीरे नीचे लाना शुरू करता है.”

स्टडी में कहा गया है कि एक बार सक्रिय केस शिखर पर पहुंच जाते हैं तो लॉकडाउन का विस्तार करने से अतिरिक्त लाभ हो सकते हैं. जैसे कि आबादी में संक्रामक पूल की थकान जिसकी तुलना छूट से पहले Covid-19 के कम फैलाव से की जा सकती है.

दूसरी लहर से निपटना

लॉकडाउन का विस्तार सक्रिय केसों की नई बढ़ोतरी (या दूसरी लहर) में देरी के साथ आता है. संभावित दूसरी लहर में देरी करना अहम है क्योंकि यह सरकार को अपने हेल्थकेयर सिस्टम को तैयार करने के लिए और अधिक वक्त देगा. इसलिए इस मॉडल के मुताबिक कोई देश अगर लॉकडाउन में ढील देने में जितनी देर करता है तो उसे उतना ही तैयारी के लिए अधिक वक्त मिलता है.

चीन सख्त लॉकडाउन उपायों को लागू करने और उनमें ढील देने में देर करने की क्लासिक मिसाल है. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक चीन 13 फरवरी को अपने शिखर पर पहुंचा, जब उसने एक ही दिन में 15,133 केस देखे. चीन ने 8 अप्रैल को महामारी के एपिसेंटर वुहान को शिखर पर पहुंचने के करीब दो महीने बाद बंदिशों से खोला. और मौजूदा स्थिति में वो पूरे शहर की टेस्टिंग कर रहा है. (https://www.bbc.com/news/world-asia-china-52651651 ).

यदि भारत शिखर को हिट करने के दो हफ्ते बाद लॉकडाउन में पूरी तरह से ढील देता है तो संभावना है कि सक्रिय केस पांच दिन में बढ़ सकते हैं. लेकिन अगर यह शिखर पर पहुंचने के एक महीने के बाद लॉकडाउन को रिलेक्स करता है, तो ऐसा करने से दूसरी लहर से निपटने के लिए तैयार होने में करीब एक हफ्ता और मिल जाएगा.

स्टडी से यह भी पता चलता है कि अगर शिखर हिट करने के बाद लॉकडाउन को आठ सप्ताह (या दो महीने) के लिए बढ़ाया जाता है, तो भारत को सक्रिय केसों में एक नई बढ़ोतरी की तैयारी के लिए लगभग 15-16 दिन का अतिरिक्त समय मिल सकता है. स्टडी के मुताबिक अगर लॉकडाउन को अचानक हटाने की जगह धीरे-धीरे उठाया जाता है तो इससे तैयारी के वक्त में और अधिक लाभ होता है क्योंकि सक्रिय केसों में नई बढ़ोतरी धीमी गति से होती है.

लॉकडाउन के बाद टेस्टिंग

स्टडी में लॉकडाउन में ढील के बाद टेस्टिंग बढ़ाने के असर का भी विश्लेषण किया गया है. रिसर्च के मुताबिक लॉकडाउन में ढील के बाद सोशल डिस्टेंसिंग के साथ बढ़ी हुई टेस्टिंग संक्रमण की कुल संख्या को खासी घटाने में मदद करती है.

स्टडी में कहा गया है, “ढील की हद, जो कि संक्रमण के असहनीय पलटाव के बिना संभव हो, बहुत ज्यादा की गई टेस्टिंग के स्तर पर निर्भर करती है, खास तौर पर लॉकडाउन के बाद छूट की स्थिति में. जबकि गहन सोशल डिस्टेंसिंग और बहुत महंगी टेस्टिंग दोनों का साथ होना गैर व्यावहारिक हो सकते हैं. लेकिन दोनों के असर को जहां तक संभव हो सके वहां तक ले जाने से महामारी को नियंत्रण में रखा जा सकता है.”

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स्टडी में शामिल 140 मरीजों में से 60 प्रतिशत एसिम्प्टमैटिक. (बिना लक्षण वाले) थे. स्टडी से सामने आया कि लॉकडाउन ढील के 45 दिनों के अंदर अधिक से अधिक एसिम्प्टमैटिक केसों की टेस्टिंग और उन्हें आइसोलेट करने से कुल संक्रमणों को खासी हद तक घटाया जा सकता है.

एक काल्पनिक परिदृश्य में मान लीजिए कि लॉकडाउन ढीला किए जाने वाले दिन भारत में 4 लाख केस हैं, तो बढ़ी हुई टेस्टिंग कैसे काम करेगी. अगर लॉकडाउन में ढील के बाद भारत एसिम्प्टमैटिक केसों के सिर्फ़ 10 फीसदी का टेस्ट करता है तो ऐसे अनेक बिना पहचान किए गए एसिम्पटमैटिक केस बाहर निकले होंगे जो अनजाने में पोस्ट लॉकडाउन अवधि में और लोगों को संक्रमित कर रहे होंगे. कुल संक्रमण 12 लाख हो सकते हैं जिनमें से करीब 2 लाख की ही सिर्फ़ पहचान हो सकी क्योंकि टेस्टिंग को बढ़ाया नहीं गया था.

लेकिन अगर भारत टेस्टिंग को खासा बढ़ाता है अधिक से अधिक एसिम्प्टमैटिक केसों की पहचान करता है तो इससे कुल संक्रमणों को काफी घटाया जा सकता है. यदि भारत 45 दिन के अंदर, इसे 80% तक बढ़ाता है तो इससे कुल संक्रमित केसों की संख्या 1 लाख से नीचे तक आ सकती है. यह देखते हुए कि लॉकडाउन विस्तार एक महंगा सौदा है, टेस्टिंग क्षमता बढ़ाना इतना खर्चीला नहीं बैठता.

स्टडी पेपर के मुताबिक, “बड़े पैमाने पर भी टेस्टिंग की आर्थिक लागत उस लागत से छोटी ही रहने की उम्मीद है जो लंबी अवधि तक सोशल डिस्टेंसिंग को लागू करने से होगी. अर्थव्यवस्था का समर्थन करने के अलावा, यह नजरिया पूरी आबादी पर लॉकडाउन लागू करने के भारी सामाजिक और मानवीय प्रभावों को सुधार सकता है, खास तौर पर भारत जैसे देश में.”

इसके अलावा, स्टडी में कहा गया है कि ल़ॉकडाउन लागू रहने की तुलना में लॉकडाउन में ढील के वक्त समय पर टेस्टिंग और पहचान करने से अधिक संक्रमणों से बचाव होता है. ये तथ्य लॉकडाउन में ढील के वक्त टेस्टिंग बढ़ाने पर जोर देता है. स्टडी पेपर के मुताबिक “सामान्य सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों की प्रगतिशील बहाली के साथ लॉकडाउन ढील के बाद संक्रमण घटाने में टेस्टिंग और भी ज्यादा अहम और कारगर हो जाती है.’’

राष्ट्रव्यापी बनाम क्षेत्रीय लॉकडाउन

कोरोना वायरस केसों के रिप्रोडक्शन नंबर की क्षेत्रीय निगरानी पर भी स्टडी में जोर दिया गया है. स्टडी के मुताबिक भारत के लिए रिप्रोडक्शन नंबर 30 मार्च को 1.66 था, जो 22 अप्रैल को घटकर 1.15 हो गया. प्रसार को नियंत्रित करने के लिए 1 से नीचे का रिप्रोडक्शन नंबर हासिल करना होगा.

स्टडी पेपर में कहा गया है, “हालांकि भारत में दुनिया का सबसे बड़ा लॉकडाउन, बाधाओं के बावजूद Covid-19 के ट्रांसमिशन स्तर को नीचा रखने में कारगर रहा है. केसों में दोबारा उभार से बचने के लिए एक गतिशील ढील दृष्टिकोण अपनाए जाने की जरूरत है. ऐसा दृष्टिकोण सुझाया जाता है जो रिप्रोडक्शन नंबर की प्रभावी क्षेत्रीय निगरानी से निर्देशित हो. साथ ही यह ढील सक्रिय केसों के शिखर से जितनी व्यावहारिक हो सके उतनी दूर (समय के हिसाब से) होनी चाहिए.”

डॉ गिरिधर गोपाल परमेश्वरन कहते हैं, “राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन का देश की अर्थव्यवस्था पर काफी प्रभाव पड़ता है, साथ ही स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन और श्रम जैसे मुख्य सेक्टर बाधित होते हैं. कारगर रिप्रोडक्शन नंबर के जिलावार वैज्ञानिक अनुमानों के आधार पर क्षेत्रीय लॉकडाउन उन नकरात्मक प्रभावों को सुधार सकते हैं जो राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन से होते हैं.”

उन्होंने कहा, ” देश भर में ल़ॉकडाउन लागू करने की कुल आर्थिक लागत (प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष) की तुलना में एसिम्प्टमैटिक लोगों (कम जोखिम वाले संपर्कों सहित) के टेस्टिंग की प्रत्यक्ष आर्थिक लागत बहुत कम होगी.”

मॉडलिंग स्टडी में पब्लिक डोमेन के मोटे अनुमानों और नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट, झज्जर के कुछ प्राथमिक अनुमानों का इस्तेमाल किया गया. शोधकर्ताओं ने भारत में महामारी को समझने के लिए SEIR के विस्तारित संस्करण का इस्तेमाल किया. पूरी स्टडी यहां (https://www.medrxiv.org/content/10.1101/2020.05.13.20096826v2 ). देखी जा सकती है.




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