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निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
हिन्दी दिवस पर आयोजित भाषण प्रतियोगिता में मैंने इन्हीं पंक्तियों से शुरुआत की गई। बाद में अरदाना जी, परदाना जी का धन्यवाद ज्ञापित किया गया। उस दिन स्थान भले ही मुझे द्वितीय आया परन्तु ये तय हो गया कि लड़की हिन्दी में एक दम जबराट है। मेरे विद्यालय के लिए भी खुशी का अवसर था। पाँच विद्यालयों को पछाड़ कर दूसरा स्थान आया था।
चहुँ ओर प्रशंसा से उन्मत्त मैं सातवें आसमान पर तैराकी में लीन थी। मैं उसी साल अगस्त में इस स्कूल में आई थी। भिलेज एरिया से बेलोंग करने के कारण अंग्रेजी माध्यम की लड़कियों ने आते ही मुझे आई ब्रो चढ़ा कर देखा था। रौंब झाड़ना उनका शौक था, ना सहना मेरा फितूर। ‘यू नो’ से शुरू होती बात तो ‘यू अंडर स्टैंड’ पर ही ख़त्म होती।
नया माहौल और नये लोग देख कुछ दिन तो मैं चुपाई मार कोने में बैठी रही। बाद में मेरे भीतर का बागी बलिया बगावत पर उतर ही आया। एक दिन एक गिटिर पिटिर बोलती लड़की ने मेरा बैग फेंक कर मेरी बेंच पर कब्ज़ा कर लिया और उँगली दिखा कर बोली, “थिस इज़ माई सीट,यू अंडरस्टेंड?”
विद्या माता का अपमान देख मेरा ख़ून खौल गया। मैंने उसको धक्का देकर नीचे गिरा दिए। बेंच पर खड़े होकर मैं बोली, “Now you understand!”
मेरे लिए उसका under माने नीचे और स्टैंड माने खड़ा होना ही ‘अंडरस्टैंड’ था। और फिर वही हुआ जिसकी आशंका थी। घर से चाचा- चाची को बुलाकर ऑफिस में मेरी घनघोर बेइज्ज़ती की गयी, अलग से घर पर दुगनी धुलाई हुई।
हिन्दी दिवस से मुझे एक पहचान मिली पर सच यही था कि जो मैंने स्कूल में बोला था वो पड़ोस में रहने वाले अरोड़ा अंकल रेडियो स्टेशन में काम करने वाले अपने मित्र चतुर्वेदी जी से लिखवाकर लाए थे।
पड़ोस के लोगों के लिए मैं शुरू से ही आँखों का तारा थी, सब लोग खिलाते पिलाते और स्नेह रखते।
क्लास में एक छः फुट की भी लड़की थी – ममता … पूरा नाम … घटा तोप ट्रंकाल कला नंदिनी बाई। ये नाम कुल गुरु जी ने दिया था। कोई ‘कला’ कहता कोई ‘नंदिनी’ कोई ‘घटा’ कोई ‘तोप’ इत्यादि। सुविधानुसार नाम लेने की छूट थी। सहेलियों के लिए ‘ममता’ नाम था।
ममता के लिए रोज़ लंच में नौकर आता टिफिन देने – मस्त सब्ज़ी जिस पर ताज़ी दही डाली होती और मोटी मोटी घी चुपड़ी ६ रोटियां, चार वो खाती, दो में हम सब बाँट लेते। मेरे लिए टिफिन ले जाना समस्या थी। माँ ने सिखाया नहीं था, चाची बनाती नहीं थीं। मैं कभी कभी रात की रोटी अचार के साथ लेती जाती। एक बार ममता ने देख लिया और मेरा टिफिन अपनी गाय के लिए लेती गई और अगले दिन से दो रोटी और लाने लगी। कुल मिलाकर ममता का मुझ पर नमक का कर्ज़ था।
हिंदी दिवस के बाद मेरी हिंदी का बोलबाला पूरे स्कूल में था। ऐसे में ममता रानी बोली,” एक काम करेगी मेरे लिए?”
मैंने उसकी रोटी खाई थी, मना कैसे करती?
“एक लेटर लिख दे ना, हिन्दी में”
“किसको”
“तू पहले लिख, फिर बताऊंगी”
रूप रेखा सुन के समझ आ गया कि छ फुट्टी प्रेम पत्र लिखवा रही है, मेरे मन में भी गुदगुदी हुई।
उसे किसी हाल में मना तो करना नहीं था। कुछ उसका सुन के, कुछ अपना सोच के लिख दिए शुद्ध हिन्दी में पाती प्रेम भरी …
“मेरे प्रियतम!
आपके दर्शन मात्र से जिह्वा कोने में आसन लगा देती है।
आपके घुंघराले केश राशि सर्प सा आभास देते है। मुखारविंद से निकले वाचन के श्रवण मात्र से हृदय तरंगित हो उठता है। यही प्रेम है जिसे मैं अभिव्यक्त करने की कामना में मैं पत्र प्रेषित कर रही हूँ।
आपकी प्रेम पात्र”
बंदी ने बहुत ज़ोर देने पर भी बंदे का नाम ना बताया। पार्लर में आने वाली सरिता, गृहशोभा, मेरी सहेली से पढ़े गए प्रगाढ़ हिंदी ज्ञान का प्रयोग मेरी अपनी सखी के काम आया। ये सोचकर ही मन प्रसन्न था।
दो दिन बाद लंच के एक पीरियड बाद प्रिंसीपल ऑफिस से बुलाया आया।
सामने प्रिंसिपल सर, मैथ्स वाले खूंखार सर जो वाइस प्रिंसीपल थे और बगल में बैठे थे सांइस वाले नए आए सर।
तीनों ने घूर के देखा।
मैं सकपका गई। मेरे सामने मेरी ही लिखी चिट्ठी फड़फड़ा के चिढ़ा रही थी!
“तुमने लिखा”
“जी”
“किसके लिए”
“ममता के लिए”
“झूठ, ये चिट्ठी तुमने सांइस वाले सर को भिजवाई”
काटो तो खून नहीं के साथ शर्म से लाल होने वाले भाव एकसाथ आए। आदरणीय गुरु जी के लिए ऐसे भाव तो सपने में भी रखना पाप था। मैंने रो रो कर अपनी बात रखी पर अगले दिन अभिभावक को लेकर ही आने को बोला, ममता को भी अपने माता पिता को लाना था।
चाचा जी से ऐसी बात बताना और डंडे से मार खाना, चाची को पता चलना और मोहल्ले में ढिंढोरा पिटना, नहीं ले जाने पर स्कूल में नो एन्ट्री। मेरी जान सूख रही थी। ज़िन्दगी में हिन्दी ने गजब खूँखार बिंदी लगा दी थी।
अब याद आए ऊपर उल्लेखित अरोड़ा अंकल जो दादा की उम्र के थे और रोज़ी आंटी, उनकी पत्नी। सब बात सुनकर वह मेरी तरफ से लडने को तैयार हो गए और अगले दिन वादे के अनुसार तीसरे पीरियड में पहुँच गए।
ममता के माँ बाप बेटी को निर्दोष मान लड़ते हुए जा चुके थे। सबूत में उनकी बेटी का नाम तक नहीं था, पर मेरी लिखावट मेरा सबूत थी। तीखी बहस हुई। मैं बोल कम रही थी और रो अधिक रही थी। और रोज़ी आंटी बीच बीच में पंजाबी में सबको श्राप दे रही थी। मैंने गलती नहीं की थी तो मानने को और माफ़ी माँगने को तैयार नहीं हुई।
अंत में गुरु भक्ति ही काम आई। सांइस वाले सर ने सबके सामने बोल दिया कि इस प्रकार के तुच्छ काम मैं नहीं कर सकती। बात को बंद कर दिया जाए। मैं समझ गई कि ममता के अनकहे इशारे सर तक पहुँच ही गए हैं पर वह सभ्य थे।
अरोड़ा अंकल ने प्रिंसीपल सर से चिट्ठी मांगी, पढ़कर ज़ोर ज़ोर से हँसते हुए बोले, ” कुछ भी कहिए सर! बिटिया हिंदी का मान बढ़ा रही है वरना अब ऐसी भाषा कहाँ सुनने मिलती है?”
मेरे सर पर हाथ फेर बोले, “मीरा की तरह लिखती हो।”
आज ना स्कूल है, ना ममता, ना अरोड़ा अंकल, ना प्रिंसिपल। मैं हूँ और मेरी हिंदी है। इस प्रोत्साहन ने मेरे काव्य यात्रा को धक्का दिया। मैं दो-दो, चार-चार अजीबोगरीब पंक्तियाँ अरोड़ा अंकल को तब तक पढ़ाती रही जब तक वो हमारे बीच रहे।
हिंदी पखवाड़े में ऐसे हिंदी प्रेमियों को भी एक सादर नमन बनता है जो गरिमा में छुपी मीरा को जाने कैसे देख लेते हैं।
#हिन्दी_पखवाड़ा