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हिन्दी की विविधता ही इसकी सारूप्य है। क्या मतलब कि हिन्दी दिवस के शुभ अवसर पर आप यह लेख पढ़ रहे हैं, और पहले वाक्य का एक शब्द पढ़ते ही आपका मन कच्चा हो जाता है। और भला यह क्या बात हुई कि हिन्दी में स्वादानुसाप उर्दू मिल गयी तो लेखिका का लेखत्व ‘ख़ारिज़’ हो जाता है। क्यों ना कच्चे हुए मन और खखारी हुई जीभ पर दबाव बनाकर आगे बढ़ा और लेख पढ़ा जाए।
ख़ैर! सभी सम्मानित बड़े-बूढ़ो को “गोड़ लगय छि” और बाकी सभी को “जै राम जी की”। ‘स्कूल’ में तो यही पढ़ाया गया है कि आँचलिक भाषाओं, संस्कृत और मिली-जुली अन्य भाषाओं का मिश्रण ही हिन्दी है। एक विषय के रूप में हमने हिन्दी के हर रूप पढ़े व समझे हैं। उदाहरण के रूप में प्रेमचंद जो हिन्दी लिखते थे, वह जयशंकर प्रसाद की हिन्दी नहीं थी। इसका अर्थ यह नहीं है कि आज के समय में बिस्तर पर लेटी हुई यह सब लिखती हुई मैं, प्रेमचंद या जयशंकर प्रसाद, दोनों में से किसी की हिन्दी को भी ‘ख़ारिज’ कर सकती हूँ। इसके साथ ही आप में से ‘कुछ’ मेरी भाषा को भी ख़ारिज़ नहीं कर सकते हैं – काहे की यहै सब तौ हिन्दी केरि महिमा हवै, है कि नाहीं’?
हिन्दी विषय में पढ़ाये गए रस व अलंकार सबको याद ही होंगे। अगर नहीं हैं तो मान लीजिए कि लगभग धिक्कार ही है। हाँ! किसी भी भाषा का रस हमें उससे जुड़ी संस्कृति से बुझेगा। विद्यापति द्वारा लिखे गए मैथिली गीत आज भी धूम से गाये जाते हैं। यही नहीं संस्कृति के अनुसार इन सभी गीतों की गायन शैली/राग आम हिन्दी, भोजपुरी, अवधी और बैसवाड़ी से अलग हैं। ठीक यही प्रमुखता अन्य भाषाओं में भी है। हर आंचलिक भाषा सुंदर और अपने में सम्पूर्ण है।
भारतेन्दु की भाषा क्या थी? सूरदास कौन सी हिन्दी लिखते थे? तुलसी, कबीर व रहीम से बड़ा साहित्यकार कौन हो सकता है? आज तो उनका आलोचक भी होने का सामर्थ्य रखने वालों के लाले पड़ने लगे हैं। हिन्दी व हिन्दी की शुद्धता के प्रति हमारा एक दृष्टिकोण हो सकता है, जिसे हम निजी जीवन में अपने सामर्थ्यानुसार लागू भी कर सकते हैं पर सारा कार्यभार साहित्यकारों पर डालकर हिन्दी का विकास नहीं होगा। जब तक प्रादेशिक भाषाओं के लिए सम्मान नहीं आता है हिंदी को हम अनन्त काल तक साथ लिए नहीं चल पाएँगे। वैसे भी अंग्रेजी लग्गी लगाए बैठी है।
कुछ लोग इस पर भी कहेंगे कि अच्छा ठीक है हिंदी, आंचलिक और संस्कृत सब मिलाकर बोलो, बस उसमें उर्दू नहीं मिलाओ। अर्रे भाई जो भारत में उर्दू अब तक बोली व समझी गयी है वो (दिवंगत राहत इंदौरी की तर्ज़ पर) किसी के पिता जी की थोड़ी ना है। इसके साथ ही भाषा के प्रति ईर्ष्या रखने वाले हम कौन होते हैं जिनसे हमारी अपनी भाषा ही नहीं सम्भल रही है। ‘बोले भी तो क्या बोले’ या ‘किससे बोले’ से ज़्यादा ‘अब बोले भी तो कौन सी भाषा बोले’ पर ज़ोर है। माना कि अंग्रेजों ने हम पर राज किया और अंग्रेज़ी हम पर थोप गए किन्तु थोड़ी बहुत विजय तो हमने भी उन पर पायी। भारतीय सिनेमा की कुछ फिल्में साक्ष्य है कि हमने उन्हें “ठुम साला घुलाम लोग हमारी जुटी के नीचे रहेगा” बोलने पर विवश किया।
एक बार फेसबुक पर मैंने हिन्दी दिवस पर कुछ पंक्तियाँ इंग्लिश में लिखी जिनका अभिप्राय था कि हिंदी भाषा को प्राथमिकता दें। एक मित्र ने कटाक्ष किया, “यह हिन्दी में लिखती तो और अच्छा लगता”। मैंने उत्तर दिया कि मैंने अपने अंग्रेज मित्रों को संबोधित करते हुए यह लिखा था। हिन्दी प्रेमी होने के नाते हमारा कर्तव्य हिन्दी का प्रचार व प्रसार भी होना चाहिए। कब तक हम ‘हमें कितनी हिन्दी आती है और जितनी आती है उसमें कितनी शुद्ध है’ पर उलझे रहेंगे। यदि हम इसमें उलझे रहे तो काल क्रम के साथ होते परिवर्तन से भाषा में होने वाला विकास बाधित होगा। आजकल कई अच्छे लेखक भाषाई शुद्धता का मानक लेकर लेख-प्रवाह बाधित कर देते हैं। अर्रे डर कर थोड़े ना रहना है, कांफिडेंस ज़रूरी है।
कई लोग क्रुद्ध रहते हैं कि हिन्दी के विकास के लिए अनेक प्रादेशिक भाषाओं की बलि चढ़ी। इस आरोप में दम न भी हो कि आंचलिक भाषाओं का विकास हिन्दी के कारण या हिन्दी के लिए अवरूद्ध हुआ या किया गया लेकिन हिन्दी का प्रसार भी औना-पौना ही हो सका है या जितना भी हुआ है, उससे अधिक तब होता जब हिन्दी और आंचलिक भाषाओं को युग्मता में प्रश्रय दिया जाता। यह लेख अन्य भाषाओं के विषय में नहीं है। विश्वास कीजिए, आज के दौर में जिस प्रकार का सामाजिक प्रभाव और दबाव हिन्दी भाषियों पर अंग्रेजी बोलने का है, उसी प्रकार का दबाव अतीत में आँचलिक भाषा भाषियों पर हिन्दी बोलने का था और कुछ हद तक देश के अनेक भागों में आज भी है।
समझने की बस दो बातें हैं कि हिन्दी और आंचलिक भाषा को अलग-अलग मत गिनिए और दोनों को जोड़ कर एक दिशा में आगे बढ़ते रहिये। हिन्दी की विशालता और सुंदरता उसके सभी भाषाओं का मिश्रण होने से है। इसमें कोई भाषा मिलकर भी इसके स्वरूप को और सुंदर ही बनाती है।
मंडली की ओर से हिन्दी दिवस की ढेरों शुभकामनाएँ।
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