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मालाऽ पानी देना … आधी रात, दोपहर या फिर सुबह सबेरे … शंकर चाचा बिना माला चाची के हाथ का पानी पिए नहीं रह सकते थे। कड़कदार रौबदार आवाज़ में उनकी ये डिमांड जिल्लेइलाही सल्तनते पटोरी का हुक्म था जिसकी तामील फ़ौरन से पेशतर माला चाची करती थी।
पूरे चंद्रभवन में ये बात सबको पता थी। कई लोगों को ये नागवार गुज़रती थी। कई इसे ग़ुलामी मानते थे। कईयों के लिए ये असभ्यता थी। बहरहाल, जिसे जो लगे, नई बहू के पहले दिन से लेकर अंतिम यात्रा से एक दिन पहले तक उसी अंदाज में चाचा ने गुहार लगाई और माला चाची ने उन्हें पानी पिलाई। पानी यहाँ सांकेतिक है, छोटी बड़ी हर चीज़ के लिए माला की गुहार उनके घर की आम बात थी। धीरे-धीरे बहुएँ, नाती पोते और यहाँ तक की रिश्तेदार और मिलने जुलने वाले उनके इस अंदाज से वाक़िफ़ होकर आदी हो गए थे।
पचास वर्षों का उनका वैवाहिक जीवन ऐसे ही चला …
मुझे भी शुरू में बड़ा अटपटा लगता था। मैं शहर से एक या दो दिन के लिए उनसे मिलने आता था। तब भी गुहार लगती मेरे नाश्ते खाने के लिए.. मैं कई बार टोक देता था। चाचा जाने दीजिए आ जाएगा पर बिलंब होने पर या एक आवाज़ में उत्तर नहीं मिलने पर गुहार की तीव्रता बढ़ती जाती और उसका क्रम भी। उनके आते ही पहले तो ग़ुस्सा पर तुरंत मनुहार में कहते, “बेटा आया है … कुछ खिलाओगी नहीं …” उसके बाद आवभगत के जो रेल लगती तो मुझे अपनी दादी की बात याद आ जाती कि हमारे यहाँ पेट की पूजा से ही स्वागत पूरी होती है।
ख़ैर, मैं थोड़ा भावना में भटक गया हूँ … रास्ते पर वापिस आता हूँ …
एक पति पत्नी के रिश्ते की जो नींव होती है वो प्रेम ही हो सकता है। चाहे विवाह के पूर्व जैसे आजकल या विवाह के बाद सामंजस्य बिठाकर भरे पूरे घर में काम से लोगों से नजर और मौक़ा चुरा कर … कुछ ऐसी ही बात थी चाचा और चाची के रिश्ते में … ग्रामीण परिवेश में!
सामंती ठाठ में पले एक ज़मींदार के वंशज और एक साधारण घर की कन्या माला के रिश्ते में वो सब कुछ था जो हम और आप सोच सकते हैं। चाहे चाचा जितना अकड़ दिखा लें पर घर के अंदर हुकूमत माला चाची की चलती थी, बाहर चाचा जो कर लें।
मुझे जो चीज़ बहुत अच्छी लगती और आकर्षित करती थी वो था चाचा का चाची को नाम से पुकारना। वो उनके अस्तित्व को स्वीकारने जैसा था। कोई और पूरे घर में अपनी पत्नी को नाम से नहीं पुकारता था, पर यहाँ माला नाम की माला जपते शंकर चाचा नहीं थकते थे। गाँव के माहौल में जहाँ जब सब ऐजी, सुनती हो, फ़लाँ की अम्मा और अमुक जगहवाली कहते थे, वहाँ माला चाची को अपना संबोधन बहुत अच्छा लगता होगा। यहाँ प्रेम की स्वीकारोक्ति दिखाई पड़ती है! कैसे दो अनजान लोगों ने एक दूसरे को आत्मसात कर पूरक बन गए थे !
रात बिरात सोते जागते हर गुहार पर पलट कर कहना कि आ रही हूँ और मौन साधे हुक्म बजा लाना समर्पण की, पूर्ण प्रेम की एक अनोखी दास्तान है जो विरले मिलती है।
छोटी क़द की प्रिय माला चाची की आत्मीयता के सभी क़ायल थे। फल के भी दो टुकड़े कर बाँट देती, व्यवहारिकता की इतनी धनी थीं।
अन्तहीन जुदाई की वेदना में भी चाची को यही चिंता थी … अब माला कहकर कौन बुलाएगा … किसके लिए कठपुतली की तरह कभी भी कहीं भी खड़ी हो जाऊँगी … संगिनी, सहायिका, परामर्शदात्री सब मिलकर एक .. अपने प्रेम के, समर्पण के, अपने जीवन के, मन के, एक हिस्से को काल के कपाल पर सौंप कर विदा कर रही थी.. माला के प्रेम शंकर अपने अनंत यात्रा पर गतिमान थे। प्रेम के एक युग, समर्पण के एक युग, संधर्ष के एक युग का इतिहास बन रहा था। सब मौन थे। अब चाचा आवाज़ नहीं लगाएँगे। माला चाची पास खड़ी सुबक रही थीं। आँसू रोक रही थीं और चाचा की ख़ुशी की हर छोटी बड़ी चीज़ों को उनके विदाई यात्रा में जुटाने का प्रयास कर रही थी। माला अपने प्रेम शंकर को विदा कर रही थी … प्रणाम कर … चरणागत हो … समर्पित हो!
लेखक – टी रजनीश (@trivedirajneesh)