मध्यप्रदेश में “अपनों” से मुश्किल होगी सिंधिया समर्थक बीजेपी नेताओं की जीत
भाजपा प्रदेश नेतृत्व को हाटपिपल्या के पूर्व विधायक और पूर्व मंत्री दीपक जोशी को शुक्रवार के दिन प्रदेश कार्यालय तलब करना पड़ा। दीपक से उनके बयान को लेकर कैफियत मांगी गई, जिसमें उन्होंने कहा था कि “उनके पास सारे विकल्प खुले हुए हैं।” विकल्प अकेले दीपक के सामने ही नहीं हैं, विकल्प उन 22 विधानसभा क्षेत्रों में भी हैं, जहां से भाजपा के प्रत्याशियों को हरा कर विधायक और मंत्री बने कांग्रेस नेता सत्ताबदल की चौसर पर अपनी विधायकी दांव पर गंवाने के बाद एक बार फिर मैदान में होंगे। सत्ता बरकरार रखने के लिए भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने इन्हीं रणबांकुरों को बागी बनने से रोकने की है।
भाजपा प्रदेशाध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा और प्रदेश संगठन महामंत्री सुहास भगत के इस ऐलान के साथ कि सिंधिया खेमे के सभी पूर्व विधायक पार्टी प्रत्याशी होंगे और उन्हें जिताने के लिए कार्यकर्ताओं के साथ पार्टी के हारे हुए प्रत्याशियों को मेहनत करनी है, असंतोष खदबदाने लगा है। मंत्री और विधायक पद बलिदान कर भाजपा को सत्ता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले इन पूर्व विधायकों के इस त्याग का मोल चुकाना भाजपा की मजबूरी है। पार्टी कार्यकर्ता भी इसे महसूस करते हैं। सभी जानते हैं कि इन बलिदानियों को कमल निशान के साथ चुनाव में उतारना पार्टी के लिए अहसान उतारने जैसा पावन कार्य है। इस सबके बावजूद जिस तरह से कोरोना काल में भाजपा की मान्य परंपरा को दरकिनार कर वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए उनकी उम्मीदवारी का ऐलान किया गया उसे लेकर नाराजगी है।
नाराजगी का प्रथम मुखर स्वर पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के संत नेता स्वर्गीय कैलाश जोशी के पुत्र दीपक जोशी के रुप में सामने आया। जोशी की पीड़ा है कि उन्हें उनके अपनों ने ही चक्रव्यूह में घेर का चुनाव हराया था। पराजय के बाद भी पूर्व मंत्री होने के बावजूद पार्टी कार्यक्रमों में उनकी उपेक्षा, तिरस्कार किया जाता रहा। ऐसे में जब उन्हें भाजपा में अपने खेलने के लिए कोई मैदान नहीं दिख रहा तो सामने से मिल रहे अच्छे मैदान के प्रस्ताव को कैसे नजरअंदाज करें। सियासत में पाला बदल का एक बड़ा कारण यही आत्मसम्मान है। मध्यप्रदेश ही नहीं कांग्रेस की राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में खासा मुकाम रखने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी एक लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद उन्हीं सब परिस्थितियों का सामना कर दलबदल करना पड़ा, जिसे दीपक जैसे नेता झेल रहे हैं। जब सिंधिया का कदम जायज और स्वागतयोग्य है तो उनका क्यों अस्वीकार्य हो जाता है?
हाटपिपल्या में मनोज चौधरी को भाजपा का टिकट जो स्थितियां बना रहा है, कमोबेश वही परिस्थितियां ग्वालियर में प्रद्युम्न सिंह तोमर के सामने पूर्व मंत्री जयभान सिंह पवैया के कारण हो सकती हैं। गोहद में रणवीर सिंह जाटव को भी पूर्व मंत्री और भाजपा के अनुसूचित जाति वर्ग के नेता लाल सिंह आर्य को लेकर ऐसी समस्या हो सकती है। सांची में डॉ प्रभुराम चौधरी के आगे उनके सदाबहार प्रतिद्वंदी डॉ गौरीशंकर शेजवार और उनके पुत्र को लेकर भी वही चुनौती सामने आ सकती है। सुरखी में शिवराज सरकार में मंत्री बन चुके गोविंद सिंह राजपूत के चुनावी भाग्य का फैसला करने में इस जिले से भाजपा कोटे से बनने वाले मंत्री और पूर्व विधायक का योगदान होगा। यदि दोनों प्रमुख दावेदारों में से कोई भी मंत्री बनने से चूका को उनकी टीम राजपूत को विरोधी दल का मान कर उनकी जड़ों में मट्ठा डालने में जुट सकती है। ये दोनों मान भी गए तो बाकी दावेदारों के लिए भी यह अवसर बुरा नहीं होगा। प्रदेश की उपचुनाव वाली 24 विधानसभा सीटों में से 22 पर यह बगावत और भितरघात का यह वायरस मौजूद है। फर्क बस इतना है कि कहीं वह एक्टिव दिख रहा है तो कहीं उसे माकूल मौसम का इंतजार है।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और भाजपा प्रदेश नेतृत्व इस स्थिति से अनजान नहीं हैं, लेकिन उनकी मजबूरी है कि सत्ता सुख भोगना है तो इस वायरस का इलाज करना होगा। संक्रमण की गति को देखते हुए उसके मुकाबले की योजना बनानी होगी। किसी को दुलार-पुचकार कर तो किसी को पद-प्रतिष्ठा देकर और किसी को घुड़की या निष्कासन का भय दिखा कर बगावत की इस बीमारी का इलाज करना होगा। चुनाव करीब आने के पहले ही वीडी शर्मा और सुहास भगत ने घाव को कुरेद कर उसके उपचार की शुरुआत कर दी है। इसी की प्रतिक्रिया में दीपक जोशी सामने आए और उन्हें मनाने का जतन भी तुरंत कर लिया गया। प्रदेश नेतृत्व से मुलाकात के बाद जोशी का बयान – “भाजपा में था, भाजपा में ही रहूंगा और क्षेत्र में भाजपा की ही जीत होगी” बताता है कि आने वाले दिनों में कुछ और नेता इस तरह के बयान दीनदयाल परिसर में खड़े होकर देते दिख सकते हैं। उनके सीने में भाले की तरह धंसे सिंधिया समर्थकों को लेकर उनका और उनके कार्यकर्ताओं का क्या रुख होगा, असलियत चुनाव में ही दिखेगी। उनके सामने कांग्रेस का वैसा ही प्रलोभन होगा, जैसा कमलनाथ सरकार के तख्तापलट के समय निर्दलीय सहित अन्य दलों के विधायकों के सामने रहा होगा।
अपने विजेता प्रत्याशी विरोधी दल के हाथों गंवा चुकी कांग्रेस के लिए किसी नए की तुलना में भाजपा के पराजित उम्मीदवार कई क्षेत्रों में ज्यादा असरदार साबित हो सकते हैं। आखिर वह भी तो अपनी सत्ता वापस पाने के लिए चुनाव मैदान में उतर रही है। इसलिए भाजपा के बागी की टीम के साथ कांग्रेस का गठजोड़ चुनाव को रोचक बना सकता है। मुकाबले के लिए भाजपा के पास भी सत्ता की चाशनी के साथ अपने कार्यकर्ता, सिंधिया गुट के नेताओं के समर्थक और खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया का ग्लैमर होगा।
फिर भी भाजपा की चिंता पुरानों को थाम कर रखने और संतुष्ट करने की है। चुनाव से पहले उन पराजित नेताओं को संगठन, निगम-मंडल में एडजस्ट किया जा सकता है, जो पार्टी लाइन को शिरोधार्य करें। इसके बावजूद अपनों के भितरघात का खतरा बना ही रहेगा। 24 जिलों में युवा अध्यक्ष देकर एक अलग तरह के असंतोष का खुद कारण बनने वाले भाजपा के नए नेतृत्व पर निर्भर करता है कि वह इन हालातों से कैसे निपटता है।
- प्रभु पटैरिया के ब्लॉग ताजा मसाला से साभार