गुंडप्पा विश्वनाथ स्टाइल में अरविंद केजरीवाल की कलात्मक सियासी बल्लेबाजी
विश्लेषण/जयराम शुक्ल
हमारे जमाने में एक क्रिकेटर थे गुंडप्पा विश्वनाथ। कमाल के बैट्समैन थे, वे फ्रंटफुट पर आकर शायद ही कभी स्ट्रोक मारते। उनकी खासियत थी अपनी कलाई के कमाल से तूफान की गति से आती गेंद की सिर्फ दिशा भर बदल देते थे और बाल बाउंड्री के पार। वेस्टइंडीज के तूफानी गेंदबाज एंडी राबर्टस, मैल्कम मार्शल जैसे गेंदबाज अपनी पूरी ताकत झोंकने के बाद भी विश्वनाथ को डरा या थका नहीं पाते थे। विश्वनाथ खूबसूरती के साथ गेंदबाजों की ऊर्जा का इस्तेमाल अपने हक में कर लेते थे। खिसियाए गेंदबाजों के पास सिरफोडू बाउंसर फेकने के सिवाय कोई चारा नहीं बचता।
दिल्ली के इस चुनावी पिच में अरविन्द केजरीवाल रिस्टमास्टर विश्वनाथ की तरह खेले। जबकि भाजपा के खिलाड़ी वेस्टइंडीज के तूफानी गेंदबाजों जैसे, जिन्होंने आखिरी ओवरों में कई खतरनाक बाउंसर फेककर दर्शकों की नजर में विलेन बन गए। केजरीवाल ने यह पारी भी भारी अंतर से जीतकर लगातार दूसरी बार मैन आफ द मैच बने। आप यदि दिल्ली के इस चुनाव को दर्शक बनकर गवास्कर-गैरी सोबर्स युग के भारत-वेस्टइंडीज मैचों के बरक्स देखें तो सबकुछ सहज ही समझ आ जाएगा।
चुनाव के शुरुआती दौर में जब अमित शाह ने उनपर हमले बोले- “केजरीवाल ने पाँच साल कुछ नहीं किया सिवाय विग्यापन देने के”, तो केजरीवाल ने कलात्मकता के साथ जवाब देते आरोप की दिशा बदल दी-“यदि मैंने पाँच साल कोई काम नहीं किया हैं तो दिल्ली की जनता से अपील करता हूँ कि वह मुझे बिल्कुल वोट न दे”। यानी कि केजरीवाल ने अमित शाह की पहली बाल को ही बाउंड्री पार भेज दिया। परिणाम यह निकला कि अनुराग ठाकुर, प्रवेश वर्मा और कपिल मिश्रा जैसे खिलाड़ी बाउंसर पर बाउंसर फेकने लगे। जैसा कि होता है कि क्रिकेट का बाउसंरर दर्शकों की नजर में खूँखार विलेन ही बनता जाता है और समूचा दर्शक मंडल(विरोधियों के पाले का भी) उस बेचारे बैट्समैन के साथ हो लेता है जिस पर ज्यादा हमले होते हैं।
शाहीनबाग की गुगली सिर्फ़ गुगुआई इससे कैसे निपटे किसी के समझ नहीं आया। प्रायः नेता, अनाड़ियों की भाँति खेलते रहे। लेकिन क्रीज पर डटे केजरीवाल इसे नो-बाल मानकर वैसे ही छोड़ते रहे जैसे कि विश्वनाथ के जमाने के टेस्ट मैंचों की कछुआ बैटिंग के लिए प्रसिद्ध ब्रिटिश बैट्समैन ज्याँफ बायकाट।
राजनीति तो एक खेल ही है। सिर्फ शतरंज भर ही नहीं, क्रिकेट, कबड्डी, कुश्ती, हाकी सभी के सब। इतिहास में जाएं तो पता चलेगा कि ये खेल युद्ध के मैदान या राजनीति के पैतरों से ही निकले हैं। शांतिकाल में सेनाएं ठंडी न बैठी रहें इसलिए दो पाले वाले खेल शुरू हुए। पक्ष और विपक्ष। बहरहाल खेल के इतिहास में जाने की बजाय वर्तमान की राजनीति और उसकी पृष्ठभूमि और भावी परिणामों का एक फौरी आँकलन कर लेते हैं।
केजरीवाल ने 16 फरवरी को शपथ ली तो यह स्पष्ट हो गया कि वे फिलहाल सेंटर फारवर्ड ही खेलेंगे। पहले उम्मीद थी कि शपथग्रहण समारोह में नरेन्द्र मोदी विरोधी तमाम विपक्षी दल जुटेंगे और केंद्र के खिलाफ साझा हमला बोलेंगे। चतुर केजरीवाल ने विपक्षी बड़बोलों को रामलीला मैदान में गला साफ करने का अवसर नहीं दिया। वे फिलहाल एकला चलेंगे, क्योंकि अब समझ में आ गया- तीन तिगाड़ा खेल बिगाड़ा।
केजरीवाल की दिल्ली की इस बार लड़ाई बिलकुल जुदा थी। जब दुश्मन अपने दुश्मन के अस्त्रों और पैंतरों के साथ मैदान पर होता है तो फिर बड़ी मुश्किल होती है। यदि हम केजरीवाल को नरेन्द्र मोदी द्वितीय कह दें तो यह कहने की स्पष्ट वजह है। केजरीवाल इस बार बेहद सतर्क थे। वे अपनी ब्रांडिंग पर वैसे ही ध्यान दे रहे थे जैसे कि नरेन्द्र मोदी। ड्रेस कोड से लेकर भाषण और जुमलों तक। पिछले चुनावों की भाँति वे मोदी को आड़े हाथों नहीं ले रहे थे और न हीं यह गिना रहे थे कि दिल्ली के कौन-कौन से काम मोदी और उनके एल.जी की वजह से नहीं हुए। बल्कि उनका फोकस इस बात पर था कि उन्होंने क्या किया..और जो किया उसे पाँच साल तक जारी रखेंगे।
केजरीवाल की इसी कलात्मकता के चिकुरजाल में अमितशाह, अनुराग ठाकुर, मनोज तिवारी, प्रवेश वर्मा, कपिल मिश्रा फँसते गए। पराजय के बाद अमित शाह को खुलेमुँह से यह स्वीकार किया कि उनसे व पार्टी से कहाँ कहाँ गल्तियां हुईं। बाबतपुर की बटन और शाहीनबाग का करंट की सही अर्थिंग न होने से उल्टा उन्हें ही झटका लगा।
केजरीवाल अब यह भली भाँति जानते हैं कि दिल्ली के जनादेश के मायने यह नहीं कि यहां से मोदी की भाजपा की जमीन खिसक गई। पिछली बार तो केजरीवाल की आप ने इस बार से भी भीषण जीत दर्ज की थी लेकिन लोकसभा चुनाव में आप का खाता भी नहीं खुला। उन्हें इस हकीकत का भी पता है कि यदि लोकसभा के चुनाव आज हो जाएं तो दिल्ली की सात में सातों सीटों से भाजपा ही जीतेगी क्योंकि वोट भाजपा के लिए नहीं मोदी के लिए पड़ेंगे ठीक वैसे ही जैसे कि इस बार भी वोट केजरीवाल के लिए पड़े।
भारतीय राजनीति का यह व्यक्तिवादी कल्ट इंदिरा जी के जमाने से शुरू हुआ था। बांग्ला विजय के बाद इंदिरा गांधी ही इंडिया बन गईं और कांग्रेस नाम की संस्था इंदिरा नाम के ब्रांड की रैपर मात्र। जैसा कि कुलदीप नैय्यर अपनी आटोबायोग्राफी बियांड द लाइंन्स में लिखते हैं कि यदि खुफिया मशीनरी ने धोखा न दिया होता तो वे न तो इमरजेंसी हटातीं न चुनाव करातीं। संजय गांधी ने तो आगे चालीस साल तक का ब्लूप्रिंट तैय्यार कर लिया था। इंदिरा गांधी संजय गांधी के तेवर से चिंतित हो गई थी..क्योंकि मुगलिया तर्ज पर जल्दी ही देश और कांग्रेस संजय गांधी की लगाम और चाबुक में जाता दिख रहा था। इसलिए खुद की लार्जर दैन लाइफ का डिमोलिशन खुद ही कर लिया। 80के बाद जब उन्हें पुन्ः सत्ता मिली तो वे देश में राष्ट्रपति प्रणाली की संभावनाएं तलाश रहीं थी और वसंत साठे जैसे वफादारों ने इसकी बहस भी शुरू कर दी थी।
मोदी को लेकर छुपे तौरपर आज फिर उसी की संभावनाएं टटोली जा रही है। इंदिरा जी की तर्ज़ पर मोदी और मोदी की तर्ज पर केजरीवाल राजनीति के इस व्यक्तिवादी कल्ट को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे है। एक बात कमाल की जो गौर करने लायक है वह यह कि हर संदर्भ में पंडित नेहरू को लाम पर रखने वाले नरेन्द्र मोदी देश की समस्याओं को लेकर कभी भी इंदिरा जी ठीकरा नहीं फोड़ते..। यह बात अलग है कि कांग्रेस जब मोदी राज में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं की गति-नियति की बात करती है तो वे इंदिरा जी की आलोचना किए बगैर इमरजेंसी की याद दिला देते हैं। केजरीवाल ब्रांड पालटिक्स का फंडा मोदीजी से सीख रहे हैं..इसलिए उनके अभियान में भी पार्टी के ऊपर उनका वैसा ही महिमा मंडन दिखता है जैसा कि भाजपा के ऊपर मोदी जी का।
तो क्या अब चुनावी लोकतंत्र में पार्टी, विचारधारा और सिद्धांत गुजरे जमाने की बात हो गए..? मुझे लगता है फिलहाल हाँ…। अब केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को ही लें। इसकी विचारधारा क्या है..समझ सकें तो समझें। दक्षिणपंथी, वामपंथी, मध्यमार्गी, समाजवादी, गांधीवादी, राष्ट्रवादी क्या कहेंगे इसे..। बिल्कुल वैचारिक काकटेल दिखेगा या फिर पानी की तरह रंगहीन गंधहीन। अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के तपिश से निकली इस पार्टी में अन्ना हजारे गायब हैं। धोखे से भी कोई नाम नहीं लेता न अन्ना हजारे का न उनके आंदोलन का। उस रामलीला मैदान में भी 16 फरवरी को किसी ने अन्ना को याद नहीं किया जिस रामलीला मैदान ने अरविंद को ब्रांड केजरीवाल बनाया। सत्ता में आने के बाद कांग्रेस ने भले ही गाँधीजी के विचारों सिद्धांतों की अवहेलना की हो पर अपने रैपर में गांधी को चिपकाए रखना चाहती है। आप ने तो इतना भी लिहाज नहीं किया।
राजनीति में अब भला लिहाज रह भी कहाँ गया है। जाति तोड़ों का नारा देने वाले डा.राममनोहर लोहिया के अनुयायियों में लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव की राजनीति की कुल जमा पूँजी ही जातीय गोलबंदी थी।
कम्युनिस्टों ने समय के हिसाब से खुद को नहीं ढाला तो आज वे बंगाल की खाड़ी में डूब- उतरा रहे हैं। लेकिन ममता बनर्जी ने राजनीति के हर लिहाज, विचार और आयकन त्याग दिये तो वे बंगाल में राज कर रही हैं। आप की तरह ममता की पार्टी को भी विचारों के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता। राजनीति की वे भी एक ब्रांड हैं तृणमूल तो रैपर से ज्यादा कुछ भी नहीं। यही करुणानिधि ने किया और यही जयललिता ने।
दरअसल राजनीतिक दलों की करनी कथनी और वैचारिक पलायन को वोटर भली भाँति समझने लगा है। सोशलमीडिया ने उसकी इस समझ को विस्तार दिया है। इसलिए वह भी अब विचारों और सिद्धांतों की राजनीति को ढ़कोसला मानने लगा है।
देश की जनता अब फिल्म और सीरियलों के कास्ट डायरेक्टर भूमिका में है। वह तय करने लगी है कि महाभारत के ड्रामे में कौन अर्जुन, कौन भीम, और कौन कृष्ण की भूमिका के लिए फिट है। कौन दुर्योधन, गांधारी और धृतराष्ट्र के लिए भी उपयुक्त है यह भी जानती है। सो इसलिए वह देश के लिए मोदी को चुनती है तो दिल्ली और बंगाल के लिए अरविंद केजरीवाल व ममता बनर्जी को।