महाराज के सामने वाकई हाथ कटे ठाकुर की भूमिका में हैं शिवराज या…?
प्रभु पटैरिया
बात पुरानी है। इंदौर के एक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की मौजूदगी में उनकी सरकार के तेजतर्रार और कलाकार मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने खुद को शोले फिल्म का हाथ कटा ठाकुर बता कर अपनी विवशता का सार्वजनिक प्रदर्शन किया था। करीब एक दशक बाद हाथ कटे ठाकुर की भूमिका फिर मध्यप्रदेश के राजनीतिक पटल पर दिखाई दे रही है, लेकिन इस बार कलाकार बदल गया है।
ठाकुर वाली विवशता की चादर शिवराज सिंह चौहान ने खुद ओढ़ी है या फिर उन्हें पहनाई गई है… इस सवाल का जवाब तो आने वाले समय में वे खुद देंगे, लेकिन फिलहाल नम्रता और परिश्रम की पराकाष्ठा के साथ चाणक्य की तरह राजनीतिक प्रज्ञा वाले इस नेता की हालत ठाकुर वाली दिख रही है, तो उसके लिए भाजपा और शिवराज से कहीं ज्यादा कांग्रेस से भाजपा में आए ज्योतिरादित्य सिंधिया जिम्मेदार हैं।
ज्योतिरादित्य सिंधिया ने वो कमाल किया है, जो उनके पिता स्वर्गीय माधवराव सिंधिया पूरी ताकत लगा कर भी कभी नहीं कर पाए। सफल केंद्रीय मंत्री और सांसद रहे माधवराव की हसरत मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की थी या फिर सुपर सीएम। यह हो न सका। जयविलास पैलेस इस बात पर गर्व कर सकता है कि माधव महाराज के पुत्र ज्योतिरादित्य ने वह रसूख अर्जित कर लिया, जिसकी तमन्ना उनके पिता को थी और जो सुख उनकी दादी राजमाता विजयाराजे सिंधिया आज से 53 साल पहले भोग चुकी हैं। कमलनाथ सरकार का तख्तापलट कर महाराज मुख्यमंत्री न बन सके तो कोई गम नहीं वे किंगमेकर बन गए हैं और अपनी इस नई पारी में वे उसी अंदाज में बल्लेबाजी कर रहे हैं, जैसा खेल पांच दशक पहले उनकी दादी ने खेला था।
महाराज की महिमा से फिर सत्ता में आई भाजपा और मुख्यमंत्री पर महाराज की मर्जी का चाबुक कुछ इस तरह चल रहा है कि 15 साल तक लगातार मंत्री रहे गोपाल भार्गव अथवा अपने खास सखा भूपेंद्र सिंह को उनके अनुभव और योग्यता के मुताबित विभाग देना मुश्किल हो रहा है। महाराज की महिमा ही है कि भाजपा को दूसरी, तीसरी और चौथी बार के अनुभवी विधायकों की जगह फर्स्ट टाइमर को भी मंत्री बनाना पड़ा है। मध्यप्रदेश विधानसभा में पहली बार 14 वो मंत्री दिखेंगे, जो सदन के सदस्य नहीं होंगे। इन्हें महाराज की जिद
में न केवल मंत्री बनाया गया, बल्कि अब विभाग वितरण में भी उनकी ही पसंद-नापसंद की परवाह करने की विवशता है। महाराज के इस पराक्रम के संकेत हाल ही में अपनी वर्चुअल रैली में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने यह कह कर दे दिए थे कि सिंधिया की हर बात को पूरा किया जाएगा। वचनपत्र वाली पार्टी से संकल्प वाली भाजपा में आए ज्योतिरादित्य के वचन और पसंद का मान रखना अब भाजपा और शिवराज के लिए कमलनाथ सरकार के वचन से भी वजनदार काम हो गया है।
तो महाराज की पसंद से मुख्यमंत्री भले ही शिवराज सिंह चौहान फिर बन गए, लेकिन मंत्री बनाने से लेकर अब मंत्रियों के विभाग तक महाराज की मर्जी को महत्व देने की मजबूरी है। मजबूरी भी ऐसी कि पांच दिन बाद भी मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों को विभागों का वितरण नहीं कर पा रहे हैं। इसके लिए दिल्ली में दो दिन तक मशक्कत भी वे कर आए। तमाम बड़े नेताओं से मिल लिए। प्रदेश प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे से भी सिंधिया की मुलाकात के फोटो जारी हो गए, लेकिन मुख्यमंत्री के अनुसार ने कुछ समय और वर्कआउट करना चाहते हैं। इससे पहले मंत्रिमंडल के गठन को लेकर भी ऐसा ही वर्कआउट एक साथ कई बड़े भाजपा नेताओं को करना पड़ा था।
सरकार गठन और उसे चलाने के हर कदम पर ज्योतिरादित्य अपनी दादी वाली तरकीब आजमा रहे हैं। यानी मुख्यमंत्री भले ही उनकी पसंद का हो, लेकिन वो मुख्यमंत्री अपनी पसंद से कुछ काम न कर सके। संविद सरकार में राजमाता द्वारा मुख्यमंत्री बनाए गए गोविंद नारायण सिंह ने भी महल के इतने दबाव झेले कि एक दिन उन्होंने संविद सरकार से ही किनारा कर लिया था। 1969 वाला वापसी का वह रास्ता भाजपा या शिवराज के पास फिलहाल नहीं है। लेकिन महाराज… वे तो स्वतंत्र हैं और अपनी सुपर सीएम वाली भूमिका को मुलम्मा चढ़ाने में व्यस्त हैं। फिर चाहे मंत्रिमंडल गठन हो, विभाग वितरण हो या ग्वालियर किले के रोप-वे का मामला अथवा कोई और मसला।
महाराज का यह दबाव फिलहाल उस शिवराज पर भारी पड़ता दिख रहा है, जिसने कभी अपने तेज रफ्तार मंत्री कैलाश विजयवर्गीय को शोले का हाथ कटा ठाकुर बना दिया था। वह शिवराज सिंह चौहान अभी चुपचाप हर दबाव सहता दिख रहा है, जिसने कभी मध्यप्रदेश में सुमित्रा महाजन, कृष्णमुरारी मोघे, विक्रम वर्मा जैसे वरिष्ठ नेताओं और उनके मध्यप्रदेश संसदीय दल को ऐसा प्रभावहीन किया था कि अब दबाव बनाने वाले संसदीय दल का कोई नामलेवा नहीं बचा। वो शिवराज सिंह चौहान जिसकी विनम्र छवि के आगे उमा भारती की फायरब्रांड इमेज पर पानी पड़ गया था। बाबूलाल गौर सरकार के दौरान संगठन से ज्यादा सत्ता में रुचि लेने वाले कड़क प्रदेश संगठन महामंत्री कप्तान सिंह सोलंकी की इस पद से विदाई सहित कई ऐसे अवसर आए, जब शिवराज ने अपनी सहजता, विनम्रता और उपलब्धता के हथियार से हर दबाव बनाने वाली हस्ती को बर्फ के मानिंद पिघला दिया।
शिवराज सिंह चौहान जब पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तब उन पर दबाव बनाने वाले बहुत से नेता मौजूद थे। वर्तमान में मध्यप्रदेश भाजपा में कोई ऐसा चेहरा नहीं जो उनके सामने ऊंची आवाज कर सके। इस वेक्यूम में ज्योतिरादित्य की ज्योति ज्यादा प्रज्वलित होती दिख रही है। सरकार को सदन में पूर्ण बहुमत तक आने के लिए 24 विधानसभा के उपचुनाव का सामना करना है और इनमें से 16 सीटें महाराज के प्रभावक्षेत्र की हैं। यह सरकार महाराज की देन है यह अहसास कराते हुए शिवराज अपनी सहनशीलता के दम पर महल के तमाम दबाव और प्रभाव झेल लेंगे, लेकिन निर्णयों को टाल कर बिना कुछ बोले ही महाराज के अनुचित दबाव का प्रतिकार करना भी नहीं छोड़ेंगे।
अब यह शिवराज की सहनशीलता पर निर्भर करेगा कि वे कब तक महल का यह जुआ अपने कांधे पर ढोएंगे! उपचुनाव के बाद की परिस्थितियां कुछ और कहानी लिखती दिखाई दे सकती हैं। सिंधिया यदि “दबाव बना रहना चाहिए” की नीति पर चलते रहे तो भाजपा के सामने वह विकल्प भी हो सकता है, जिसका इशारा उमा भारती कर रही हैं- मध्यावधि चुनाव। उस स्थिति में शिवराज सिंह के पास भी 1969 के गोविंद नारायण सिंह वाला विकल्प भी होगा।