Sunday, February 23, 2025
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Prashant Kishore will be against whom in Bihar election? This is the meaning of attack on brand Nitish – प्रशांत किशोर बिहार के रण में किसके खिलाफ और किसके साथ होंगे? यह हैं ब्रांड नीतीश पर हमले के मायने

पटना:

बिहार (Bihar) की राजनीति में पिछले 48 घंटे में जो कुछ घटित हुआ है उसकी दशा और दिशा के बारे में सब लोग जानना चाहते हैं. सबसे पहले बृहस्पतिवार को चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर (Prashant Kishore) ने विधिवत रूप से ‘बात बिहार की‘ से जुड़ने का कार्यक्रम शुरू किया जिसकी घोषणा मंगलवार को उन्होंने एक संवाददाता सम्मेलन में पटना में की थी. इसके तहत अगले तीन महीने में एक करोड़ युवाओं को अपने साथ इस अभियान में शामिल कराने के लक्ष्य का प्रशांत किशोर ने ऐलान किया है.

लेकिन सबकी जिज्ञासा इस बात को लेकर है कि प्रशांत किशोर का अगला कदम क्या होगा? या वे जो कर रहे हैं उसका नफ़ा नुक़सान किसको अभी हो रहा है और आगे किसको होगा? और क्या आगामी विधानसभा चुनाव वे महागठबंधन का हिस्सा बनकर लड़ेंगे? फिलहाल सभी सवालों का जवाब शायद खुद प्रशांत किशोर के पास भी न हो. लेकिन हां चर्चा में वे बने हुए हैं, जो कि न तो नीतीश कुमार (Nitish Kumar) समर्थकों को और न ही तेजस्वी यादव के चाहने वालों को रास आ रहा है. लेकिन एक बात साफ है कि बहुत दिनों के बाद कोई व्यक्ति मुद्दों के माध्यम से भविष्य की राजनीति करने का प्रयास कर रहा है. अन्यथा कुछ राजनीतिक दल जातिगत आधार पर गुणा भाग करके गठबंधन बनाते थे. लेकिन सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि प्रशांत, नीतीश कुमार की एक और तारीफ भी करते हैं और दूसरी ओर उन पर भाजपा का पिछलग्गू बनने का भी आरोप लगाते हैं.

पीके (प्रशांत किशोर) ऐसा बोल रहे हैं तो उन्हें यह बात अच्छे तरीके से मालूम है कि 2017 में जब से भाजपा के साथ नीतीश कुमार वापस गए तब से उन्हें सार्वजनिक रूप से भाजपा के दो शीर्ष नेताओं ने बहुत ज्यादा मान-सम्मान नहीं दिया. इसलिए पटना विश्वविद्यालय की घटना का वे बार-बार जिक्र करते हैं, जो हर बिहारी को नागवार गुजरी थी. नीतीश कुमार की बार-बार केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने की मांग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक रूप से ठुकरा दी थी. इसके अलावा बाढ़ राहत के मद में लगातार दो वर्षों के दौरान केंद्र का जो रवैया रहा है वह नीतीश जैसे नेता के लिए खून का घूंट पीने के समान है. यहां तक कि नीतीश ने नरेंद्र मोदी के दूसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद उनसे विधिवत फूलों का बुके लेकर मिलने की औपचारिकता आज तक नहीं निभाई. जबकि हेमंत सोरेन ने यह काम पिछले महीने शपथ लेने के बाद नहीं किया. नीतीश अब किसी केंद्रीय मंत्री से भी दिल्ली यात्रा के दौरान नहीं मिलते क्योंकि उन्हें मालूम है कि जब बिहार को कुछ देने की बात होती है तो सबके हाथ बंधे होते हैं. पटना हाईकोर्ट  से जो भी फटकार मिलती है उसमें अधिकांश मामले केंद्र सरकार से सम्बंधित होते  हैं. इसलिए नीतीश कुमार अब डबल एंजिन की सरकार का सार्वजनिक कार्यक्रम में कोई दावा नहीं करते. वे पिछले 15 वर्षों के दौरान अपने कामकाज या अपने किए गए वादों पर कितना अमल किया गया है, उस पर ज्यादा ध्यान देते हैं.

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नरेंद्र मोदी ने नीतीश कुमार को बेबस और लाचार मुख्यमंत्री बना दिया है. इसका प्रमाण  है कि वे किसी कठिन सवाल का जवाब न देना पड़े इसलिए मीडिया से भी दूरी बनाकर रखते हैं. पहले विधिवत रूप से संवाददाता सम्मेलन उनका साप्ताहिक कार्यक्रम होता था. लेकिन अब छह महीने से अधिक समय से वे मीडिया से विधिवत रूबरू नहीं हुए.

सामाजिक सूचकांक को आधार बनाकर प्रशांत किशोर इसलिए नीतीश कुमार को घेरने की कोशिश करते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि कल तक इसी संकेतक का हवाला देकर नीतीश कुमार बिहार को विशेष राज्य का दर्जा या विशेष सहायता देने की मांग करते थे लेकिन आज अपनी राजनीतिक कुर्सी बचाने के लिए उन्होंने ही अब यह सब मांगें करना बंद कर दिया है. भाजपा के बिहार के नीतीश मंत्रिमंडल के सहयोगी भी व्यक्तिगत रूप से प्रशांत किशोर पर जो भी बोल दें, लेकिन उनके पास बिहार को विशेष पैकेज पर कितना काम हुआ, इस पर वे भी बात करने से बचते हैं. यही कारण है कि नीतीश कुमार पहली बार अपनी सरकार की नाकामी पर जारी एक ढंग के कागजात का खंडन नहीं कर पाए. कोई मंत्री या अधिकारी भी उसके जवाब में बीस ऐसे बिंदु मीडिया के सामने पेश कर पाए जो यह साबित कर सकते कि आखिर बिहार ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में अन्य राज्यों से बेहतर काम कैसे किया है. कहीं न कहीं नीतीश के कट्टर समर्थक भी मानते हैं कि विकास पुरुष के रूप में ब्रांड नीतीश को क्षति पहुंच रही है क्योंकि पहली बार नीतीश को इतनी तैयारी से कोई घेरने की कोशिश कर रहा है.

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अभी तक नीतीश कुमार के साथ जो दल नहीं रहते थे वे उनके खिलाफ एकजुट होकर इस फिराक में लगे रहते थे कि उन्हें पराजित कर देंगे, लेकिन हर बार नीतीश कुमार उन्हें मात देने में कामयाब होते थे. हालांकि प्रशांत किशोर को भी मालूम है कि वे चाहे तेजस्वी यादव हों या उपेन्द्र  कुशवाहा, बिहार की जनता उन्हें विकल्प के रूप में नहीं देखती, या जनता के बीच में अभी भी नीतीश कुमार का ग्राफ कहीं अधिक ऊंचा है.

जैसे भाजपा नीतीश के बाद के राजनीतिक परिदृश्य के लिए अपने आप को सबसे उपयुक्त दल मानती है उसी तरह प्रशांत किशोर भी जानते हैं कि नीतीश के खिलाफ वोटर का विश्वास जीतने से ज्यादा जरूरी नीतीश के वर्तमान समर्थकों, जातियों और वोटरों को अपनी तरफ मोड़ना है. जो इसमें कामयाब होगा सत्ता की चाबी उसी के पास होगी. इसलिए नीतीश के प्रति पीके पूरे सम्मान के साथ बात करते हैं और इस बात से इनकार नहीं करते कि राज्य का विकास उनके नेतृत्व में नहीं हुआ. तेजस्वी यादव के प्रति जितनी बेरुख़ी प्रशांत किशोर की है फिलहाल उससे ज्यादा आक्रामक राजद समर्थक उनके प्रति हैं. बिहार की वर्तमान राजनीति की सच्चाई यही है कि नीतीश बनाम तेजस्वी मुकाबले का हश्र एक ही है, जो जहां वर्तमान में जिस कुर्सी पर है, वहीं रहेगा. जहां तक उपेन्द्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी या मुकेश मल्लाह का सवाल है, ये लोग अभी भी राजद से ज़्यादा भाजपा की तरफ देखते रहते हैं.

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नीतीश कुमार को मालूम है कि अगर प्रशांत किशोर इसी तरह उनके खिलाफ रिपोर्ट कार्ड जारी करते रहेंगे तो भले चुनाव जीत जाएंगे लेकिन उनके शासन में छेद करने की कोशिश में भाजपा की केंद्र में सरकार रहने के दौरान कामयाब नहीं हो पाएंगे. पीके के इस अभियान से विरोधियों को अब ख़ूब सामग्री मिलेगी और मीडिया भी नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ इसे मसाला के रूप में इस्तेमाल करेगा.

इस प्रकरण में सबसे हास्यास्पद प्रशांत किशोर पर हमला करने की होड़ में जनता दल यूनाइटेड के विधायक श्याम बहादुर सिंह का नशे में दिया गया बयान रहा. उसके बाद भी बिहार पुलिस द्वारा उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई न करना, नीतीश कुमार के शराबबंदी के दावे को खोखला साबित करता है. और शराबबंदी और भ्रष्टाचार दो ऐसे मुद्दे हैं जो जनता के बीच नीतीश कुमार के सारे सुशासन के दावे पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हैं.

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फिलहाल जहां प्रशांत  किशोर के सामने अगले तीन महीने में अपने एक करोड़ लोगों को जोड़ने के दावे को सही साबित करना होगा वहीं देखना यह है कि वे बिहार में राजनीतिक सक्रियता किस स्तर तक रखते हैं. हालांकि उनको एक लाभ यह है कि पंचायत चुनाव कैसे जीतें, इसके लिए वे छह महीने से अपने संगठन के तहत ट्रेनिंग का कार्यक्रम चला रहे हैं. हालांकि सत्ता विरोधी तेवर अपनाकर प्रशांत किशोर बिहार में अपनी राजनीतिक जमीन तलाश रहे हैं. उनकी उम्मीद इस बात पर टिकी है कि पूरे देश में एक नई राजनीतिक सोच का लोग अब स्वागत कर रहे हैं. दूसरा डबल एंजिन की सरकार एक शिगूफा मात्र है. उससे भी ज्यादा राजनीतिक सच यह है कि पिछले तीन दशक के दौरान बिहार में राज करने वाले लालू-नीतीश के राजनीतिक सफर का ऊंचा और फिर नीचे जाने का जब आप विश्लेषण करेंगे तो इन दोनो नेताओं में एक समानता है कि जब तक ये अपनी राजनीतिक शर्तों पर राजनीति करते रहे, इनके वोट और इमेज दोनों बढ़े. लेकिन जिस दिन ये अपनी पार्टी या केंद्र सरकर के पिछलग्गू बने अपनी राजनीतिक पूंजी गंवाई. लालू यादव चारा घोटाले में अपनी सरकार के समय आरोपी बने, चार्जशीटेड हुए और पहली बार दोषी भी 2013 में तब घोषित हुए जब केंद्र में उनके समर्थन की सरकार थी. नीतीश कुमार एनडीए सरकार में केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहने के कारण कई सारी परियोजनाएं बिहार में लाए. फिर यूपीए की केंद्र में सरकार में रहने के बावजूद बिहार में और पूरे देश में विकास पुरुष के रूप में अपनी छवि बनाई.

फिलहाल वर्तमान सामाजिक समीकरण और काम के आधार पर नीतीश कुमार की सत्ता में वापसी पर न कोई शक है और न कोई ऐसा संकेत है. लेकिन राजनीति में ख़ासकर नीतीश कुमार ये सच जानते हैं कि छह महीना एक लंबा समय होता है.

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