Waldemar Haffkine Life: वाल्डेमर मोर्दचाई वोल्फ हाफकीन, एक रूसी-फ्रांसीसी जीवाणु विज्ञानी थे जो टीकों में अपने क्रांतिकारी काम के लिए इतिहास में अहम स्थान रखते हैं. उन्होंने इंपीरियल नोवोरोसिया यूनिवर्सिटी से शिक्षा प्राप्त की. इसके बाद वह पहले स्विटजरलैंड, फिर फ्रांस चले गए, जहां उन्होंने पेरिस के पाश्चर संस्थान में काम किया. यहां उन्होंने हैजा का टीका विकसित किया जिसे उन्होंने भारत में सफलतापूर्वक आजमाया.
हाफकीन को पहले माइक्रोबायोलॉजिस्ट के रूप में जाना जाता है जिन्होंने हैजा और ब्यूबोनिक प्लेग के खिलाफ वैक्सीन विकसित किए और उनका इस्तेमाल किया. उन्होंने खुद पर भी टीकों का परीक्षण किया.
हाफकीन को महारानी विक्टोरिया के 1897 के डायमंड जुबली सम्मान में ऑर्डर ऑफ द इंडियन एम्पायर (CIE) का साथी नियुक्त किया गया. उस समय यहूदी क्रॉनिकल ने लिखा था, ‘यूक्रेनी यहूदी, जो यूरोपीय विज्ञान के स्कूलों में पढ़ता है, हिंदुओं और मुसलमानों के जीवन को बचाता है, वह विलियम द कॉन्करर और अल्फ्रेड द ग्रेट के वंशज द्वारा सम्मानित किया जाता है.’ हाफकीन ने 1900 में एक ब्रिटिश नागरिक के रूप में नागरिकता प्राप्त की.
कोलकाता में किया काम
बीबीसी के मुताबिक हाफकीन 1894 में भारत के बंगाल प्रांत के कलकत्ता (अब कोलकाता) की यात्रा पर गए. वसंत ऋतु में उन्हें उम्मीद थी कि शहर में हैजा फैल सकता है. वह पिछले मार्च में भारत आए थे.
हाफकिन पास इस बीमारी के लिए एक टीका था लेकिन उन्होंने अपने आविष्कार की प्रोगेस टेस्टिग करने के लिए पूरे साल संघर्ष किया. भारत में आगमन के साथ ही, हफकिन को ब्रिटिश मेडिकल प्रतिष्ठान और भारतीय जनता के कुछ लोगों से संदेह और प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. यह वह दौर था जब अंतरराष्ट्रीय जीवाणु विज्ञान की दुनिया गुटबाजी और संदेह से ग्रस्त थी.
वैक्सीन की टेस्टिंग के लिए करना पड़ा संघर्ष
हैफकिन 33 वर्ष की उम्र में भारत आए थे. उन्हें अपने वैक्सीन के परीक्षण के व्यावहारिक पक्ष से जूझना पड़ा. उनके पहले परीक्षण में एक सप्ताह के अंतराल पर दो इंजेक्शन लगाने की जरूरत थी लेकिन उनकी टीम को कभी-कभी दूसरे इंजेक्शन के लिए टेस्ट सबजेक्ट्स को खोजने में संघर्ष करना पड़ता.
दरअसल उस समय भारत में हैजा का काफी प्रकोप था लेकिन इसके बावजूद, उन्हें सफलता नहीं मिल रही थी.
बीबीसी के मुताबिक अपने स्वयं के रिकॉर्ड के अनुसार, हैफ़किन ने उस वर्ष उत्तरी भारत में लगभग 23,000 लोगों को टीका लगाया, लेकिन उनमें से किसी में भी हैजा नहीं पाया गया, जिससे यह पता चल पाता कि टीका उपयोगी था या नहीं.
कलकत्ता मेडकिल अफसर का निमंत्रण
मार्च 1894 में, हाफकिन को एक मौका मिला. उन्हें कलकत्ता के मेडिकल अफसर की तरफ से निमंत्रण मिला. उन्हें को शहर की बस्तियों में से एक में पानी की टंकी में हैजा के जीवाणुओं की पहचान करने में मदद के लिए बुलाया गया था.
शहर के बाहरी इलाकों में अलग-थलग गांव स्थित थे, जिसमें तालाबों या टैंकों के चारों ओर मिट्टी की झोपड़ियां बनी हुई थीं और जहां शहर के गरीब लोग रहते थे. इन बस्तियों में रहने वाले परिवार सामूहिक रूप से साझा जल स्रोतों से पानी पीते थे, जिससे वे समय-समय पर हैजा के प्रकोप के प्रति संवेदनशील हो जाते थे.
हैफकिन के लिए, बस्तियां उनके नए वैक्सीन के लिए एक आदर्श परीक्षण स्थल थीं. प्रत्येक घर में, उनके पास समान परिस्थितियों में रहने वाले लोगों का एक समूह था, जो समान रूप से हैजा के संपर्क में थे. यदि वह प्रत्येक परिवार के कुछ लोगों को टीका लगा सके और कुछ को बिना उपचार के छोड़ सके, तो कुछ सार्थक परिणाम प्राप्त किया जा सकता था.
मार्च के अंत में, कट्टल बागान बस्ती में दो लोगों की हैजा से मृत्यु हो गई, जो एक नए प्रकोप का संकेत था. हैफ़किन ने बस्ती की यात्रा की और 200 या उससे अधिक निवासियों में से 116 को टीका लगाया. उसके बाद, उनकी छोटी टीम ने वहां 10 और मामले देखे, जिनमें से सात घातक थे – सभी बिना टीका लगाए हुए थे.
लोगों को टीके के लिए तैयार करना आसान नहीं था
रिजल्ट कलकत्ता के स्वास्थ्य अधिकारी के लिए उत्साहवर्धक थे और वह बड़े स्तर पर ट्रायल के लिए के लिए फंड देने के लिए तैयार थे. लेकिन लोगों को टीका लगवाने के लिए राजी करना आसान नहीं था.
ब्रिटिश सरकार द्वारा वर्षों से चलाए जा रहे शीर्ष-स्तरीय चिकित्सा कार्यक्रमों ने आबादी के बीच अविश्वास पैदा कर दिया था, और कई लोगों के लिए टीकाकरण की अवधारणा अभी भी अजनबी थी.
कतारों में लग के लोग लगवाने लगे टीके
बीबीसी के मुताबिक मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी में विज्ञान और चिकित्सा के इतिहास के अध्यक्ष प्रोफेसर प्रतीक चक्रवर्ती ने कहा, ‘जो बात उल्लेखनीय है, और जिसे अक्सर कहानी में शामिल नहीं किया जाता, वह यह है कि प्रारंभिक प्रतिरोध के बाद लोग हाफकिन के हैजा के टीके के लिए कलकत्ता की मलिन बस्तियों में लोग कतारों में लगने लगे, और वे पूरे दिन कतारों में खड़े रहते.’
प्रोफेसर चक्रवर्ती ने कहा, ‘वे उन झुग्गियों में भारतीय डॉक्टरों के साथ काम करते हुए घंटों और पूरे दिन बिताते थे. वे सुबह लोगों के काम पर जाने से पहले टीकाकरण शुरू करते थे और शाम को जब वे वापस आ जाते थे, तब झुग्गी में तेल के दीये के पास बैठकर टीकाकरण जारी रखते थे.’
कलकत्ता की झुग्गियों में हाफकिन के काम ने उन्हें उन चुनिंदा वैज्ञानिकों के समूह में शामिल कर दिया, जिन्होंने बीमारी को समझने और उसका इलाज करने के तरीके में एक गहन और वैश्विक बदलाव की शुरुआत की. हालांकि उन्हें वैसा सम्मान कभी नहीं मिला जिसके वह अधिकारी थे.
प्लेग के खिलाफ वैक्सीन
कोलकाता की बस्तियों में हाफकिन के प्रयोग काफी सफल रहे. इसके बाद उन्हें असम में चाय बागानों के मालिकों ने भी मज़दूरों के वैक्सीनेशन के लिए बुलाया. सन 1895 में वह खुद मलेरिया की चपेट में आ गए, उन्हें इंग्लैंड लौटना पड़ा.
हालांकि हाफकिन नतीजों से बहुत खुश नहीं थे क्योंकि उनके टीके से हैजा के मामले तो कम हुए लेकिन मृत्यु दर नहीं घटी. वह साल 1896 में दोबारा भारत आए वह अपनी वैक्सीन पर और काम करने का इरादा रखते थे लेकिन प्लेग बीमारी की दस्तक दे दी और उन्हें अपनी योजनाएं बदलनी पड़ी.
1894 में चीन से शुरू हुई प्लेग महामारी मुंबई तक पहुंच गई थी. शहर की झुग्गियों में यह विशेष रूप से फैली. हाफकिन को मुंबई बुलाया गया. उन्हें प्लेग की वैक्सीन बनाने की जिम्मेदारी दी गई साथ उन्हें एक प्राइवेट लैब भी मिल गई.
हाफकिन ने 1896 के दिसंबर महीने में खरगोशों पर प्लेग का सफल वैक्सीनेशन किया. 10 जनवरी 1897 को हाफकिन ने इस वैक्सीन को ख़ुद पर ही लगा लिया. वह कुछ दिन तक बुखार में रहे फिर ठीक हो गए.
मुंबई की भायखला जेल भी प्लेग से बच नहीं पाया. हाफकिन ने यहां 147 कैदियों को वैक्सीन लगाई. यहां प्लेग के 12 मामले आए और 6 की मौत हुई. जिन्हें वैक्सीन लगा था ऐसे सिर्फ दो ही लोग बीमारी के शिकार हुए और किसी की मौत नहीं हुई.
इस कामयाबी के बाद हाफकिन के लिए राह आसान हो गई. उनके वैक्सीन का प्रोडक्शन बढ़ गया. 1901 में बॉम्बे के गवर्नमेंट हाउस में प्लेग अनुसंधान प्रयोगशाला का निदेशक-प्रमुख बना दिए गए.
हालांकि सफलता यह सिलसिला मार्च 1902 में आकर ठहर गया जब. पंजाब के मुल्कोवाल गांव में 19 लोगों की टिटनस से मौत हो गई. इन लोगों को हाफकिन की लैब में बनी वैक्सीन लगाई गई थी.
इसके बाद जांच शुरू हुई और हाफकिन सवालों के घेरे में आ गए. उन्हें लैब के निदेशक के पद से हटा दिया गया और भारतीय सिविल सेवा से उन्हें छुट्टी पर भेज दिया गया. इसके बाद वह भारत छोड़ कर चले गए.
1906 में इस पूरे मामले में भारत सरकार की अंतिम जांच रिपोर्ट में हाफकिन को क्लीन चिट दे दी गई हैं. हालांकि तब तक काफी देर हो चुकी थी क्योंकि भारत में 1904 में प्लेग फैल गया जिसमें लाखों लोग मारे गए. उस वक्त लोगों की मदद करने के लिए हाफकिन देश में नहीं थे.
1907 में हाफकिन भारत लौटे लेकिन उन्हें ट्रायल की अनुमति नहीं मिली. वह 1914 में वह 55 साल की उम्र में भारतीय सिविल सेवा से रिटायर हो गए.
हाफकिन की वैक्सीन प्लेग के खिलाफ एक बड़ा असरदार हथियार बनी. इसे इस तथ्य से ही समझा जा सकता है कि 1897 से 1925 के बीच हाफकिन की प्लेग रोधी वैक्सीन की 26 मिलियन खुराक मुंबई से अलग-अलग जगहों पर भेजी गईं. वैक्सीन के इस्तेमाल से प्लेग से होने वाली मौतों में 50 से 85 प्रतिशत की कमी देखी गई.
हाफकिन ने कभी शादी नहीं की उनकी मौत 1930 में 70 साल की उम्र में हुई.
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