विमर्श/जयराम शुक्ल
मंंगलवार को भोपाल के मिंटो हाल (पुरानी विधानसभा) पानी पर चर्चा हुई। जलपुरुष के नाम से विख्यात राजेन्द्र सिंह राणा की पहल पर हुए इस सम्मेलन में मुख्यमंत्री कमलनाथ ने प्रदेश में ‘राइट टू वाटर’ के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की। सम्मेलन में एक नए किस्म की राजनीति के दर्शन हुए। राजेन्द्र सिंह राणा नरेन्द्र मोदी और शिवराज के गुरुदेव जग्गी बासुदेव पर बरसे व अपने चिरपरिचित अंदाज में कहा कि इन बाबाओं ने नदियों का संरक्षण नहीं सत्यानाश किया है। एक दिन पहले बता चुके थे कि ‘नमामि गंगे’ पर लाखों करोड़ खर्चने के बाद भी गंगाजी आईसीयू में है। ‘नमामि गंगे’ केंद्र की भाजपा सरकार की फ्लैगशिप योजना है।
दो साल पहले खजुराहो में इन्हीं जलपुरुष के मंचपर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान थे। घोषणावीर शिवराज जी ने प्रदेश के सभी तालाबों को छह माह के भीतर अतिक्रमण मुक्त करने का संकल्प व्यक्त करके राणा जी के जल-जमातियों की तालियां बटोरीं थीं। लेखा लगाएं तो शिवराज काल में ही शहरी क्षेत्र के सबसे ज्यादा तालाब बिल्डरों के पोकलिन और डोजर से नेस्तनाबूद हुए। शिवराज के तालाब बचाने के संकल्प के बाद भी यह बदस्तूर जारी रहा। जल-जमातियों का मंच वही है सिर्फ़ मुख्यमंत्री के चेहरे बदले हैं। अब यह वक्त बताएगा कि कमलनाथ जी अपने ‘राइट टू वाटर’ यानी कि सबको पानी के अधिकार के संकल्प को यथार्थ के धरातल पर उतारते हैं या कि शिवराज जी की गति को प्राप्त करते हैं। वैसे यह देखने वाली बात है कि राष्ट्रीय जलनेताओं के साथ अब प्रादेशिक व क्षेत्रीय स्तरपर मझोले, छोटे जलनेता सामने आ रहे हैं। यानी कि जलपर भी राजनीति शुरू।
बहरहाल अब असल मुद्दे की बात करते हैं। हमारे देश के नए सरकारी रोलमाँडल बने इजराइल ने पानी के सम्मान और प्रबंधन के बारे में इस सदी के चौथे दशक में तब सोचना शुरू किया जब उसे इसकी जरूरत महसूस हुई। हमारे पुरखे पानी को तभी ईश्वर मान लिया था जब से इस संसार सागर को समझना बूझना शुरू किया। हमारी वैदिक संस्कृति का उद्भव ही जल से हुआ। ईश्वर कि सर्वप्रिय नाम नारायण है, इसका मतलब भी सभी को जान लेना चाहिए। नारायण में नारा का मतलब नीर से है, जल से है और अयन का अर्थ है निवास। नारायण का निवास ही जल में है, क्षीरसागर में है। दो साल पहले खजुराहो के जल सम्मेलन में एक प्रोफेसर साहब भगवान का अर्थ बता रहे थे- भ से भूमि,ग से गगन, वा से वातावरण और न से नीर। भगवान के अर्थ की ये खोज विग्यान के प्रोफेसर साहब की अपनी है लेकिन समयोचित है। देश इसीलिए भगवान् भरोसे है, कहा जाता है।
हमारे समूचे वैदिक वांग्यमय में जल यानी वरुण देवता की सबसे ज्यादा चर्चा है,वह इसलिए कि वैदिक साहित्य ही नदी के किनारे रचा गया। आर्य भारत के उत्तरी हिस्से में रहते थे इसलिए सागर से ज्यादा जिक्र नदियों का हुआ। ऋषियों ने उसे सम्मान देते हुए नदी का नाम ही सरस्वती जो ग्यान की देवी हैं के नाम रख दिया। वैग्यानिक खोजें ये बताती हैं कि यह नदी थी जो बाद में विलुप्त हो गई। इस कथा या घटना का भी प्रतीकात्मक महत्व है। जहाँ ग्यान का सम्मान नहीं होगा वहां वह ऐसे ही लुप्त हो जाएगा जैसे सरस्वती लुप्त हो गईं। जल का सम्मान नहीं हुआ इसलिए वह अब दुर्लभ होता जा रहा है।
हमारे वांगमय में हर नाम अपने पीछे गूढ व अर्थ कथा लिए हुए हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश की जो त्रिदेवियां हैं, वे सभी जल जन्य हैं। लक्ष्मी समुद्र मंथन से निकलीं वे सागर की पुत्री हैं। सागर नाम कैसे पड़ा। सगर के पुत्रों को तारने के लिए भगीरथ ने तप किया तब गंगा का अवतरण हुआ। वे इतनी वेगवान थीं कि धरती ने उन्हें धारण करने से मना कर दिया। शंकर ने अपनी जटा में उलझाकर उनका वेग कम किया तब कहीं वे बह पाईं। गंगा मिथक नहीं साक्षात् हैं। हिमालय से निकलती हैं। हिमालय का हिम पिघलता है तो गंगा को प्रवाह मिलता है। हिमालय कौन..देवी पार्वती के पिता। एक देवी लक्ष्मी जो समुद्र की पुत्री दूसरी हिमालय की पार्वती इन्हें गंगा जोड़ती हैं। तीसरी सरस्वती.. ये हंसवाहिनी हैं। हंस जलचर है जो मानसरोवर में रहता है। सरस्वती हमारे मानस का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसलिए जिन ऋषि मुनियों ने उनके सानिद्ध में साहित्य रचा,संसार को विचारवान बनाया वह नदी ही उन्हें सरस्वती के रूप में दिखीं। जैसे -जैसे हमने उनकी अवग्या की वे दूर होती चली गईं। उसी तरह इन त्रिदेवियों के जनक जल की अवग्या करते जाएंगे यह भी हमसे दूर होता जाएगा। न चेते तो अन्य सभी नदियाँ सरस्वती की तरह लुप्त होती चली जाएंगी।
ये कथाएं हम में से प्रायः ने गुरूबाबा, साधू महराज के प्रवचनों में सुनी होंगी, पढ़ी भी होंगी। एक कान से सुनी, दूसरे से निकाल दी, गुनी नहीं। दुनिया ने हमारी बातें पढ़ी और गुनी, हमने नहीं। मैक्समूलर साहब ने वेदों का अध्ययन किया उसकी वैग्यानिक व्याख्याएं की, उनके देश के लोगों ने अमल किया। अब हमारी आने वाली पीढ़ी को वेद-वेदांत समझने के लिए जर्मनी जाना होगा। पूरब से ऊषा के साथ ग्यान भी आलोकित हुआ, पश्चिम पहुंच कर वह विग्यान में बदल गया। पश्चिम के लोगों ने ग्यान के साथ मंथन किया, विमर्श किया नवाचार जोड़ा और उसे विग्यान में बदल दिया। हम कोरे के कोरे रह गये। हम भरद्वाज के विमानशास्त्र को लिए बैठे रहे उन्होंने उसे बनाकर उड़ा भी दिया। अग्निपुराण में मिसाईल और नाना प्रकार के अस्त्रों की कथा ही सुनते रहे उन्होंने मीसाईल बना भी ली, चला भी दी।
हमने अतीत को कल़ेडंर बनाकर बैठक में टांग लिया शोभा बढ़ाने के लिए, उन्होंने उससे सबक सीखा उस पर अमल किया। इजराइल के पास जलप्रबंधन का ग्यान कोई अलग से नहीं आया। हमारे पास यह सदियों से है। पद्मपुराण, मत्स्यपुराण, वाराहपुराण में जल के महत्व और जल प्रबंधन के कितने दृष्टांन्त नहीं भरे पड़े हैं। कुएँ, बाबड़ी तालाब के महत्त्व बताए गए हैं। दस तालाब माने एक पुत्र और दस पुत्र माने एक वृक्ष। पुराण कथाओं में पाप-पुण्य का भय से इसीलिए रचा गया, ताकि कम से कम इनके भय से ही अच्छा काम करें। हम जस-जस ग्यानी होते गए इन्हें ढकोसला बताकर खारिज करते गए। जिन पढ़े लिखों पर ये जिम्मेदारी थी कि वे इन सबकी वैग्यानिक व्याख्या करते, वे इसकी खिल्ली उड़ाते रहे। आप पाएंगे जब ये समाज घोर निरक्षर था तब उसे जीवन और प्रकृति के मूल्यों की प्रखर समझ थी। और देखेंगे कि कुँए, बावड़ी तालाब उसी निरक्षर समाज ने बनाए। लाखा बंजारा कौन था.. जिसने सागर में झील रच दी। बुंदेलखंड के तलाबों का सम्बृद्ध इतिहास रहा है। रीवा रियासत के 6000 तलाबों की आज भी चर्चा होती है। अनुपम मिश्र की कालजयी कृति.. आज भी खरे हैं तालाब ..की चर्चा ही रीवा रियासत के छोटे से गांव जोड़ौरी के तलाबों से शुरू होती है। किताब में देशभर के तालाबों का ब्योरा है जिनमें से ज्यादातर जनता के बीच से निकले लोगों द्वारा बनवाए गए हैं। देश में जब भी अकाल पड़ता था तब लोग तालाब बनाकर अकाल को जवाब देते थे। ऐसे-ऐसे तालाब जिनकी धारण क्षमता इतनी कि दस साल भी अकाल पड़े तो पानी का कंताल न हो। मेरे गांव का तालाब ऐसा ही था, जिसकी वजह से हमारा गांव सन् अड़सठ का अकाल झेल गया। अनुपम जी उस तालाब को जानते हैं। जोड़ौरी पड़ोसी गांव ही है जिसका जिक्र उन्होंने अपनी तालाबों वाली किताब में किया है। गावों में ऐसे हजारों तालाबों को को सरकार या राजा रजवाड़ों ने नहीं गांवों के व्यवहरों और मालगुजारों ने जनसहयोग से बनवाए।
जल का महत्व हमारे संस्कारों में था जो अब स्वस्ति और संकल्प का कर्मकांड बन के रह गया। वैदिक संस्कृति परंपरा में ढल के चलती चली आई। जहाँ लोगों ने सहेजे रखा वहां जल का संकट नहीं आया। अनुपम मिश्र जैसे नए युग के ऋषियों ने जलप्रबंधन और पर्यावरण के पुराण रचे ह़ै। ये किसी भागवत पुराण से कम नहीं। हम जन को जगाकर क्या नहीं कर सकते, अनुपम मिश्र ने अलवर को पानीदार बनाकर और अरवरी नदी को जिंदा करके बता दिया। राजेन्द्र सिंह राणा जी की जल बिरादरी ने राजस्थान की मरुभूमि से सूखे अकाल के कलंक को मिटा दिया। जन सहयोग से कोई ग्यारह हजार तालाब बनाए और जिंदा किए, सैकड़ों नदियों को पुनर्जीवित कर सद्यनीरा बना दिया। ये दोनों महात्मा न तो अवतार न ही सरकार के हिस्सा हैं, हमारे आप जैसे साधारण मनुष्य हैं। हम अपनी चेतना को जगाएं, पुरखों के अनुभव,ग्यान की पोटली खोलें और खुद बन जाएं अनुपम मिश्र, राजेन्द्र सिंह राणा। इजराइल को रोलमॉडल बनाने, मानने की जरूरत न हमें पड़ेगी न सरकार को।
जयराम शुक्ल
वरिष्ठ पत्रकार