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ग्रीष्म ऋतु के गर्म और शुष्क वातावरण ने वृक्षों से हरित-कणों का लोप कर दिया था। अरावली के पर्वत किसी निर्धन और वस्त्रहीन बालक की भाँति लग रहे थे। हरियाली पर्वतों का आभूषण है, बिना हरियाली के पर्वत खंडहरों के समान विरान लगते हैं। जून माह का उत्तरार्द्ध था। मैं हल्दीघाटी से गुजरने वाले निर्जन मार्ग पर ऑटो-रिक्शा से उदयपुर की ओर बढ़ रहा था। आकाश में काले घने बादल मँडरा रहे थे। तेज़ हवाएँ ऋतु में बदलाव का संकेत दे रही थीं।
अमूनन वर्ष के इस समय पर्यटक यहाँ कम ही होते हैं। ऑटो-रिक्शा के इंजन से आ रही आवाज और ड्राइवर की झुर्रियां देख कर मैं तय नहीं कर पा रहा था कि इन दोनों में से ज्यादा जीर्ण कौन है। रिक्शा का एक-एक पूर्जा चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था कि अब और नहीं झेला जाता लेकिन शायद यही ऑटोरिक्शा बूढ़े चालक के पूरे परिवार की उदर-संतुष्टि का माध्यम थी। खमनोर गाँव पार करते ही रास्ते की दोनों ओर पित्त-वर्ण माटी से घिरा दर्रा आया। हाँ, यह वही ऐतिहासिक दर्रा था जहाँ हल्दीघाटी का भीषण युद्ध लड़ा गया। यह जगह कुंभलगढ़, चित्तौड़गढ़ और उदयपुर के त्रि-भेंट स्थान पर स्थित है। दिल्ली सत्ता पर आसीन अकबर गुजरात प्रवेश का सुगम मार्ग चाहता था जिसके लिए मुगलों का मेवाड़ पर अधिकार होना अनिवार्य था। महाराणा प्रताप सिंह ने अकबर के सभी पैंतरे विफल कर दिए। अकबर ने जलाल खान कुरची और टोडरमल जैसे कूटनीतिज्ञों को दूत बना कर भेजा लेकिन उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई।
दर्रे में प्रवेश करते ही ऑटोरिक्शा ने एक अन्तिम चीख निकाली और खुद को शान्त कर लिया। वृद्ध रिक्शा चालक ने निसहाय दृष्टि से मेरी ओर देखा। अब आगे का जुगाड़ मुझे खुद ही करना था। मैंने रिक्शा चालक को पैसे दिए और पैदल ही आगे बढ़ चला। पीले रंग की घाटी से मैंने थोड़ी सी मिट्टी थैली में भर ली और थोड़ी सी मिट्टी अपने माथे पर लगा दी। इस भूमि की मिट्टी में जो उर्जा मिली और जैसी गौरवपूर्ण अनुभूति हुई, उसे शब्दों में बता पाना असंभव है।
दर्रे से गुजरते हुए हल्की सी बूँदाबाँदी शुरू हो चुकी थी। थोड़ा आगे बढ़ते ही कड़कती बिजली और मूसलाधार वर्षा का आगमन हो गया। बारिश से बचने के लिए मैंने दौड़ लगाई और भागते हुए सड़क की एक ओर आश्रय लेने के लिए पत्थरों की गुफा में घुस गया। गुफ़ा का प्रवेश मार्ग छोटा होने के बावजूद अन्दर से वह काफी बड़ी थी। गुफ़ा में प्रवेश करते ही सामने का दृश्य देख कर मैं हतप्रभ रह गया। गुफ़ा में थोड़े ऊँचे पत्थर पर एक तेजस्वी, बलवान और महाकाय योद्धा बैठे हुए थे और वो सामने बैठे कुछ अन्य पुरुषों से वार्तालाप कर रहे थे। वह पत्थर ही उनका सिंहासन था और वह गुफ़ा ही उनका दरबार था। मेवाड़ की मुक्ति का संकल्प लिए उस महापुरुष ने आजीवन राजसी वैभव का त्याग किया था। सभी उपस्थितों के चेहरों पर दुःख मिश्रित क्रोध के भाव स्पष्ट दिख रहे थे। एक कोने में घास की रोटियाँ उपेक्षित पड़ी थीं।
एक सेनापति ने नम आँखों से कहा, “राणा जी, इस युद्ध में हमारी काफी हानि हुई। झाला मान (झाला बीदा) जैसे पराक्रमी सेनापति ने अपने प्राणों की आहुति दी। राजा राम सिंह तँवर ने अपने वंशजों समेत बलिदान दिया। हरावल दस्ते के सेनापति अफगान मूल के हाकिम खाँ सूर शहीद हुए।”
दूसरे सेनापति बोले “युद्धभूमि पर बारिश का पानी मृतकों के रक्त में घुल जाने से वहाँ रक्तवर्णी पानी का तालाब (रक्त तलाई) भर गया। महाराणा के निष्ठावान अश्व चेतक ने साथ छोड़ा। हमारे सबसे शक्तिशाली हाथी रामप्रसाद को मुगलों ने बंधक बना लिया।” चेतक का उल्लेख होते ही महाराणा प्रताप सिंह के चेहरे पर पीड़ा के भाव उभरे।
मेवाड़ की सेना में हकीम सूर जैसे अफगान भी शामिल थे और मेवाड़ के भील समाज के अचूक तीरंदाज भी। जिस वक्त खमनौर में मेवाड़ के सेना की शाही सेना से भिड़ंत हुई, तब मेवाड़ की सेना पहाड़ी पर थी। रणनीति का स्थापित नियम है कि यदि आप दुश्मन से उँचाई पर हैं तो उसे भौगोलिक स्थिति का लाभ मिलता है और आपकी ताकत दस गुना बढ़ जाती है। लेकिन मेवाड़ की तुलना में दिल्ली की सेना का संख्याबल चार गुना अधिक था और मेवाड़ के राजपूतों के पास कोई गोला-बारूद या तोपें भी नहीं थीं।
महाराणा दुःखी थे। उनके कपाल पर चिंता की रेखाओं ने त्रिपुण्ड बना रखा था लेकिन अब भी वो हतोत्साहित नहीं हुए थे। इतनी हानि के बावजूद उन्होंने शत्रु को विजेता बनने से वंचित कर रखा था। उन्होंने अपने राष्ट्रभक्त सेनापतियों को गँवाया था। स्वामीनिष्ठ चेतक हमेशा के लिए विदा हो चुका था और उनका सैन्यबल भी काफी मात्रा में कम हुआ था। सबसे चिंताजनक बात यह भी थी कि आगे आने वाले कठिन समय में युद्ध लड़ने के लिए उनके पास कोष भी नहीं बचा था। इस वक्त महाराणा के मस्तिष्क में बस एक ही बात चल रही थी। अब मेवाड़ की रक्षा कैसे की जाए! उन्हें यह कदापि मान्य नहीं था कि मातृभूमि को शत्रु अपवित्र करे।
सभा में सभी मौन थे। भविष्य में आने वाली कठिनाईयों से बचाव के लिए क्या किया जाए? तभी बाहर से एक सेवक ने आ कर संदेश दिया, “चित्तौड़ के नगरसेठ भामाशाह और उनके अनुज बन्धु ताराचंद पधारे हैं।” अपने प्रिय सेनापति, चितौड़गढ़ के नगरसेठ भामाशाह का नाम सुनते ही महाराणा की आँखें चमक उठीं।
भामाशाह का गुफा में आगमन हुआ। ऊँची कद-काठी के सभ्य पुरुष ने महाराणा को प्रणाम किया। महाराणा अपने पाषाण सिंहासन से उठ कर उनका अभिवादन किया। भामाशाह ने दरबार में उपस्थित सभी के निराश चेहरों की ओर देखा और महाराणा प्रताप सिंह को संबोधित करते हुए कहा “भामाशाह के होते हुए मेवाड़ के महाराणा को राजकोष और धनराशि की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मैं अपने खजाने से 2 करोड़ स्वर्ण मुद्राएं और 25 करोड़ रुपये समेत अपना सर्वस्व महाराणा के चरणों में समर्पित करता हूँ।” महाराणा ने विह्वल होकर भामाशाह को गले लगा लिया। मैं अवाक सा यह दृश्य देख रहा था।
भामाशाह की घोषणा सुनते ही सभी सेनापति उत्साहित हो उठे। मेवाड़ के गौरव पर अब कोई भी शत्रु कुदृष्टि नहीं डाल सकता था। कोने में उपेक्षित पड़ी घास की रोटियाँ परोसीं गईं। संतुष्टि का भाव लिए सभी ने गुफा से बाहर प्रयाण किया। बारिश की झड़ी रुक चुकी थी। मैंने महाराणा के पाषाण आसन को प्रणाम किया और गुफा से बाहर निकला। बारिश ने अरावली को नवपल्लवित कर दिया था। भीनी मिट्टी की खुश्बू से धरती महक रही थी।
हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात महाराणा ने गुरिल्ला युद्धनीति की योजना बनाई। वर्षों तक अकबर की मुगल सेना को मेवाड़ ने अरावली की कंदराओं में उलझाए रखा। हल्दीघाटी या उसके बाद के किसी भी युद्ध में अकबर महाराणा प्रताप सिंह के मेवाड़ पर पूर्ण अधिकार नहीं कर पाया। खमनोर से बलीचा की ओर बढ़ते हुए मैं चेतक समाधि पर रुका, एक अश्व जिसने अपने स्वामी रक्षार्थ प्राणों का बलिदान दिया।
बलीचा से मुझे उदयपुर के लिए लिफ्ट मिल गई। टेक्सी में बैठे सज्जन लद्दाख – गलवान घाटी में शहीद हुए बीस भारतीय वीरों और चीन के साथ संभावित युद्ध के विषय पर फैशनेबल चर्चा कर रहे थे। टेक्सी उदयपुर की ओर बढ़ रही थी। मैं हल्दीघाटी से गलवान घाटी तक राष्ट्र के प्रति समर्पित वीरों के बारे में सोच रहा था। मेरे मन में यही प्रश्न उठता रहा कि यह कृतघ्न राष्ट्र आपके बलिदानों का ऋण कैसे चुका पाएगा?