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“का हुआ भेटनर भईया”, हाथ पर लगी पट्टी देखकर चेला टैप लड़के ने पूछा। उत्तर मिला; “छुरा लागल बा।” तब बारहवीं में 16 से 19 वर्ष के छात्र हुआ करते थे। उनकी उम्र 20 साल थी किन्तु वह स्वयं को 21 का बताते थे। शायद इसी कारण उन्होने अपना नाम वेटरन भैया स्वयं ही रख लिया था। राजेन्द्र कॉलेज के लड़के छपरहिया एक्सेन्ट में उन्हें भेटनर भईया कहने लगे – कुछ उनकी शान बढ़ाने को, कुछ व्यंग्य में और कुछ इस डर से कि ऐसा नहीं करने पर भेटनर भईया टोका-टोकी करने लगेंगे।
दुबले-पतले और लंबे भेटनर भईया किसी कोण से गुंडा नहीं लगते थे लेकिन एटीट्यूड वैसा ही दिखाते थे। कितनी बार उन्हे छुरा लगा, इसकी गिनती नहीं लेकिन हर बार लगे छुरे का जख्म एक दो दिन में ही भर जाता। आज पट्टी बाएँ हाथ में होती तो अगले दिन दाएँ हाथ में। छपरा के गुंडे तब कट्टा-तमंचा नहीं रखते थे पर छुरेबाजी खूब होती थी वहाँ। भेटनर भईया के पास भी स्प्रिंग वाला छुरा था जिसकी टेस्टिंग में अमरुद काटकर वह चेले-चपाटों संग खाते थे। भेटनर भईया खुद को रंगदार मानते थे पर उन्हे रंगदारी किसी ने दिया नहीं, उन्होने माँगा भी नहीं और माँगते भी तो मिलता नहीं।
एक बार भेटनर भईया का सामना अस्पताल चौक के गुंडों से हो गया। उन्होंने औकात की दहलीज लाँघ दी और बिना बात फउँकने लगे। गुंडों में से एक गुर्राया, “ई छिल्टू कहाँ का गुंडा है बे?” भेटनर भईया चुप न रह सके, “हम गुंडा-गुंडी लोग के भतार हैं।” फिर क्या था, गुंडों के हाथ-लात और भेटनर भईया के उह-आह के बीच ऐसा वज्र युद्ध हुआ कि लोग आज तक याद करते हैं।
कोई भी सामान खरीदकर या सेवा लेने के बाद पैसा देते हुए भेटनर भईया यह जरुर कहते थे, “ओइसे तो हमसे भगवान बाजार से साहेबगंज तक कोई पइसा नहीं माँगता बाकिर…” पढ़ाई लिखाई भले ही तेरह-बाइस हो पर किसी छात्र का नामांकन हो या पुस्तकालय या कार्यालय में कोई काम तो भेटनर भईया बिना बुलाए पैरवी करने पहुँच जाते थे। पैरवी का कभी कोई असर होता नहीं था। वह क्लास में पिछली बेंच पर भींगी बिल्ली की तरह बैठते थे लेकिन क्लास खत्म होते ही लंबी-लंबी फेंकने लगते थे।
भेटनर भईया दिल से यह मानते थे कि प्यार पहली नजर में होता है, सिर्फ एक बार होता है और सिर्फ एक से ही होता है। जमाना एंग्री यंग मैन और ही-मैन का ही था, हालाँकि ‘प्यार झुकता नहीं’ जैसी अमर प्रेम कथा के बाद फिल्म ‘कयामत से कयामत तक’ आ चुकी थी। भेटनर भईया को लगता था कि वह उनके ही-मैन छवि पर ही रीझेगी। भेटनर भईया का ग्यारहवीं में हुआ इश्क परवान तब चढ़ा जब उनके प्रणय निवेदन पर वह खीझ गयी और अपने तीन-चार बहनों संग उसने भेटनर भईया पर ऐसा एक्शन दिखाया कि उन पर रिएक्शन कई दिन तक रहा।
आरपीएफ कैम्पस के परंपरागत जन्माष्टमी आयोजन में सांस्कृतिक कार्यक्रम के तहत बच्चा गिरी के नाच पार्टी का प्रोग्राम चल रहा था। भेटनर भईया भी अपने चेले चपाटों संग नाच देखने गए थे। ‘वादा न तोड़ …’ गाने की फरमाइश पर दो रंगबाज गुटों के बीच जबरदस्त मारपीट हो गयी। भेटनर भईया अकारण आपे से बाहर होकर छरपने लगे। दोनों गुटों ने भेटनर भईया को विरोधी गुट का समझकर बारी-बारी से खूब धोया। घटना पर बौखलायी रेल पुलिस के हाथ दोनों गुटों में से कोई नहीं लगा तो आरपीएफ ने उन्हें ही गिरफ्तार कर लिया।
छपरा की जिला जेल में बीस दिन रहने के बाद भेटनर भईया की जमानत हुई। जेल से लौटकर उन्होने जेल में हुई अपनी जान पहचान पर खूब डींगे मारीं। बाद में पता चला कि वह जेल के दबंग कैदी सुभग राय के जेल में ही चलने वाले भंसा (रसोई) में चूल्हा-चौका करते थे और दूसरे बाहुबली कैदी नोखा सिंह का पैर दबाते थे।
बारहवीं की वार्षिक परीक्षा आ गयी। तैयारी करने वाले छात्र को ही परीक्षा की फिक्र होती है। भेटनर भईया बेफिक्र थे। सबके रहने का प्रबंध करके वह परीक्षा से एक दिन पहले छात्रों की टोली संग परीक्षा केन्द्र जलालपुर पहुँच गए। छात्रों की टोली खाना भी स्वयं ही पकाती थी। एक दिन छात्रों का कटहल की सब्जी खाने का मन हुआ। रात में भेटनर भईया डेरे के पास के पेड़ से कटहल तोड़कर नीचे खड़े चेलों को फेंकने लगे। तभी पेड़ का मालिक आ गया, चेले खिसक लिए। बिना छुरा लगे पट्टी बाँधने वाले भेटनर भईया ने उस रात हुई ‘कुहाई के भीतरमार’ के लिए हरदी-चूना के लेप का देसी उपचार भी नहीं लिया, भीतरमार सहते रहे। आखिर इज्जत का सवाल था।
परीक्षा में अच्छा लिखने के भेटनर भईया के दावे के बीच वह बारहवीं में फेल हो गये। तेरहवीं कक्षा में नहीं जा सके तो उन्होने पढ़ाई की ही तेरहवीं कर दी। वह राजनीति में कूद पड़े। इससे गहरा या नीचे कूदने का स्कोप ही नहीं था। छोटे-मोटे जन प्रतिनिधियों को भेटनर भईया भाव नहीं देते और विधायक एवं सांसद उन्हें। अलबत्ता, जब भी कोई धरना, प्रदर्शन या अकवा-बलवा करना होता तो बड़े नेता छोटा सिग्नल छोड़ देते और भेटनर भईया दौड़े चले आते, पुलिस की लाठियाँ खाने की कीमत पर। उन पर अपने बाबूजी के ‘ना मनबs’ का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। भेटनर भईया की राजनीति इसी लत्तम-जूत्तम और थूकम-फजीहतम के बीच चलती रही।
मंडल का दौर आया। मंडल विरोधी प्रदर्शनों से छपरा भी अछूता नहीं था। भेटनर भईया को लगने लगा कि सवर्ण सपूत उनसे नेतृत्व करने की आस लगाए बैठे हैं। भेटनर भईया ने ‘हाँके भीम भय चौगुना’ की तर्ज पर विरोध में आत्मदाह करने की घोषणा कर दी। जोरदार जमे मजमे में तालियों के बीच भेटनर भईया क्रांतिकारी भाषण दे रहे थे। आत्मदाह रोकने पुलिस आ गयी, समर्थक भाग खड़े हुए। भेटनर भईया के बाबूजी ने मौके पर पहुँचकर उनकी ऐसी कुटाई की कि भेटनर भईया के अंदर का नेता अंटार्टिका की ओर कूच कर गया।
उदारीकरण के दौर में भेटनर भईया रोजगार की तलाश में दिल्ली गए पर असफल रहे। हालाँकि भेटनर भईया ने खंडन किया था, “सांसद ने एक खास काम के लिए बुलाया था।” समय के साथ ‘प्रेम एक से ही और एक बार ही होता है’ की उनकी धारणा भी कमजोर पड़ने लगी। भेटनर भईया को गृहस्थी बसाने की तलब जोर से लगी। लेकिन वर्षों तक कोई ऐसा दिलेर बाप नहीं निकला जो उन्हें अपनी बेटी का हाथ-बाँह धराने का साहस दिखा सके। हर लगन का सीजन भेटनर भईया के लिए आस का सीजन होता। अषाढ़ बीतते ही आस खत्म हो जाती। वह कार्तिक की प्रतीक्षा करने लगते।
उम्र किसकी रुकती है जो भेटनर भईया की रुके। आखिरकार भेटनर भईया के दिन बहुरे। 35 साल के जुआए उम्र में उनकी काँच-कुँआर ‘हाड़ में हरदी’ लगा। उनकी शादी पर लोगों ने कहा कि पत्थर पर दूभ जमा है। भऊजी की उम्र 20-21 साल थी। जोड़ी वैसी ही लग रहा था जैसी फिल्म ‘बलवान’ में सुनील शेट्टी-दिव्या भारती की जोड़ी दिखी थी। भेटनर भईया ने भऊजी को बहुत तप से पाया था। इसलिए वह उन्हें बहुत प्यार करते थे।
धीरे-धीरे शादी की रुमानियत पर यथार्थ के थपेड़े लगने लगे। भेटनर भईया पर नून-तेल खर्च का दबाव बना – जाने लन चिलम जब चढ़ेला अंगार। उन्होने जातिगो से दो स्वजातीय डॉक्टर सेट करके दवा की एक दूकान खोल ली। अपने सुखद दाम्पत्य और सफल व्यवसायिक जीवन के बीच आज भी वह अपनी दूकान के सामने ‘लफुआ दरबार’ लगाते हैं। आज के भेटनर भईया लोग वहाँ थोक में जुटते हैं और इस पूर्व भेटनर भईया से उनके वज्र बवाली से बुद्ध बनने की कथा बुद्धू बनकर सुनते हैं।
दावात्याग – जनवरी-फरवरी 2019 में यह आलेख lopak.in पर प्रकाशित हुआ था।