“मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना कुंडे कुंडे नवं पय:” वाली स्थिति नहीं है। आरक्षण और उसमें भी ओबीसी आरक्षण को लेकर मध्यप्रदेश के दोनों ही प्रमुख सियासी दलों के बीच कोई मतभिन्नता नहीं है। दोनों चाहते हैं कि जातिगत आधार पर पिछड़े माने गए अन्य पिछड़ा वर्ग को उनकी आबादी के अनुपात में ज्यादा आरक्षण मिले। दोनों दल यह भी जानते हैं कि वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था में यह संभव नहीं है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट आरक्षण की अधिकतम सीमा की लक्ष्मण रेखा 1992 में ही खींच चुका है। महाराष्ट्र के मराठा आरक्षण बिल पर सर्वोच्च अदालत का ताजा फैसला भी इसकी गवाही दे रहा है कि लक्ष्मण रेखा कितनी गहरी है।
बावजूद इसके मध्यप्रदेश में ओबीसी वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण का सियासी राग क्यों? आरक्षण के इस नए गीत के रचियता कमलनाथ बखूबी जानते हैं कि उनकी ही पार्टी की सरकार रहने के दौरान 2003 में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भी ओबीसी आरक्षण 14 फीसदी के बढ़ा कर 27 फीसदी किया था, जिस आदेश को हाईकोर्ट ने निरस्त करा दिया था। यह मांग तब से उठ रही थी, लेकिन इसके फलीभूत होने की नगण्य संभावना के चलते कभी इसे गंभीरता से नहीं लिया गया। 15 साल के भाजपाई शासनकाल के बाद तीसरे मोर्चे और निर्दलीयों के समर्थन से बनी कमलनाथ सरकार ने 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले 27 फीसदी आरक्षण का दांव चल कर चुनावी फसल काटने का जतन जरुर किया, किंतु मोदी की आंधी में फसल न पक पाई। अब कमलनाथ और कांग्रेस उसी फसल को गन्ने की तरह उगाने और काटने का प्रयास कर रहे हैं। उन्हें भलीभांति ज्ञात है कि यह आरक्षणी दांव अदालत में ठहर नहीं सकता। किसान परिवार से आए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और सरकार को भी पता है कि कोर्ट का अंतिम फैसला क्या आ सकता है। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने कमलनाथ सरकार द्वारा ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देने के फैसले के ठीक 11 दिन बाद इस पर स्टे दे दिया था और अब तक स्टे पर कायम है।
अब जब आरक्षण का यह मामला हाईकोर्ट की चौखट पर है तब न शिवराज की सरकार इस मामले में कुछ कर सकती है और न ही विपक्ष के नेता कमलनाथ। फिर भी इस मामले में मध्यप्रदेश विधानसभा के मानसून सत्र का समय से पहले अवसान करा दिया। चार दिन के मानसून सत्र के पहले ही दिन कांग्रेस आदिवासी दिवस पर उनकी सरकार द्वारा घोषित किए गए अवकाश का मुद्दा लेकर हंगामे में मशगूल रही। दूसरे दिन ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण मामले को इतना तूल दिया कि हंगामे के बीच महत्वपूर्ण विधेयक और अनुपूरक बजट बिना चर्चा के पारित करा कर सत्तापक्ष ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर ली। “काम खत्म हंगामा खत्म” की तर्ज पर विधानसभा का मानसून सत्र महज दूसरे ही दिन विराम ले गया। इन दो दिनों में सदन की कार्यवाही तय समय का एक चौथाई भी नहीं चली।
सत्तर साल में पहली बार आई भीषण बाढ़ की विभीषिका और राहत-बचाव कार्य में प्रशासन की लापरवाही पर सरकार को घेरने का अवसर विपक्ष ने आरक्षणी एप्रन में गंवा दिया। कोविड से प्रदेश में हुई मौतों, ऑक्सीजन की कमी, नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन जैसे कोरोनाजन्य तमाम मुद्दे बिना चर्चा के दब गए। महंगाई, पेट्रोल-डीजल और शराब पर वेट टैक्स से सरकारी आमदनी बढ़ने के बावजूद रोजगार को तरसते बेरोजगार, बढ़ते अपराध, उधड़ी सड़कें और उनसे होती जानलेवा दुर्घटना आदि तमाम जनता के मसले भुला दिए गए। जनता के इन्हीं मुद्दों पर सरकार को घेरने के जनमत विपक्ष को मिलता है। उसका फर्ज है कि विरोध दर्ज कराते हुए भी सदन को इस तरह संचालित कराए कि ज्यादा से ज्यादा विषय उठ सकें। वैसे भी बिन मांगे कहीं कुछ मिलता है क्या? मांगना, जिद करना और ऊंचे स्वर में अपनी बात कहना यह विपक्ष का परम कर्तव्य माना जाता है। संसदीय परंपरा में तो वॉकआउट कर विरोध दर्ज कराना ही उच्च स्थान रखता है, उसके बाद अगले विषय पर कार्यवाही संचालित कराने में सहयोग और फिर विरोध के अवसर का उपयोग, स्वस्थ विपक्ष का हथियार है। आदिवासी दिवस अवकाश और ओबीसी आरक्षण पर जो कुछ हुआ उससे कहीं ज्यादा इन मुद्दों को गर्माहट पूरे सत्र के दौरान विपक्ष बार-बार दे सकता था।
आरक्षण पर तर्क देते आंकड़ों की जुबानी बात करें तो महज इन दो मुद्दों के चलते 50 फीसदी ओबीसी आबादी के लिए प्रदेश की 100 फीसदी जनता की समस्याएं उनकी सबसे बड़ी पंचायत की चौखट नहीं चढ़ सकीं। बाढ़ग्रस्त श्योपुर के कांग्रेस विधायक बाबू जण्डेल की भांति ही पीड़ित जनता भी सदन में उसकी आवाज न उठने से अब सरकार के भरोसे है। इस जातिवादी राजनीति का हास्यास्पद यह है कि कांग्रेस विधानसभा में राज्य सरकार पर इस मामले में पुख्ता पैरवी न करने का आरोप लगा रही है। हकीकत, आठ मार्च 2019 को जब कांग्रेस ने 27 फीसदी आरक्षण लागू किया था, उसके बाद से उनकी सरकार 20 मार्च 2020 तक रही। अपनी सरकार के एक साल के कार्यकाल में क्यों तत्कालीन कांग्रेस सरकार हाईकोर्ट में अच्छे वकील खड़ा कर मनमुताबिक फैसला नहीं करा पाई? कमलनाथ की सफाई और तर्क पर शिवराज आरोप लगा रहे हैं कि कांग्रेस ने जानबूझकर स्टे होने दिया। अदालत में उनके महाधिवक्ता तक सरकार का पक्ष रखने खड़े नहीं हुए। अब सरकार इस मामले में देश के बड़े वकीलों से पैरवी कराएगी। शिवराज हों या उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी सभी आरक्षण के पक्ष में हैं। कांग्रेस भी है। लेकिन आरक्षण का यह ताला खोलने की चाबी कानून के पास है, इस तथ्य से दोनों बखूबी वाकिफ हैं।
अब जरा आरक्षण राग के मौसम को आंकने की कोशिश करें। कमलनाथ ने यह राग 28 विधानसभा सीटों के उपचुनाव के समय गुनगुनाया था, फिर भुला दिया। अब मध्यप्रदेश में फिर एक लोकसभा और तीन विधानसभा सीटों के उपचुनाव हैं। इन क्षेत्रों में ओबीसी और आदिवासी वोटबैंक की फसल है। बस चुनावी मौसम आता दिखा तो प्रदेश में जनप्रतिनिधियों के सबसे बड़े प्लेटफार्म पर आदिवासी और ओबीसी राग सुनाई देने लगा। राजनेताओं के इस तरह मौसमी राग-रंग की जिम्मेदार जातिवाद और क्षेत्रवाद में बंटी जनता है। क्यों नहीं कोई समाज या वर्ग आवाज उठाता कि उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रणाली दी जाए? क्यों हम बराबरी के हक की बात करने से कतराते हैं? यदि आरक्षण ही हर समस्या का हल है तो सभी जातियों के लिए उनकी आबादी के मुताबिक कोटा फिक्स कर देना चाहिए। क्यों हमारे नेता संविधान और कानून की रक्षा करने वाले हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की नजीरों को दरकिनार कर मौसमी चुनावी फायदे के लिए व्यमनस्य की फसल बोकर जनता को बरगलाते हैं?