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दिल्ली के जिस ब्रिज पर कभी खड़े होकर हिंदी साहित्य के दो दिग्गज कथाकार विष्णु प्रभाकर और भीष्म साहनी देश की विभिन्न समस्यों पर बहस किया करते थे, आज वही ब्रिज दिल्ली के लोगों के लिए समस्या बन जाने पर बहस के केंद्र में है। जी हाँ आप सही समझे, मैं बात कर रहा हूँ दिल्ली के बहुचर्चित ‘मिंटो ब्रिज’ की। कुछ दिन पहले बारिश से पुल के नीचे भर गए पानी में डूबकर एक व्यक्ति की मौत हो गई। वैसे मिंटो ब्रिज के नीचे हल्की बारिश में भी तलैया बन जाना कोई नई घटना नहीं है, लेकिन इसकी वजह से किसी व्यक्ति की पहली बार जान जरूर गई है। हैरानी तो इस बात की है कि पिछले 60 सालों से यहाँ जलभराव की समस्या हर साल बारिश में होती है, लेकिन इस समस्या का कोई निदान नहीं होता।
पिछले 60 सालों में दिल्ली में कई मुख्यमंत्री बदले, सरकारें बदलीं, पीढ़ियाँ तक बदल गईं, यहाँ तक कि इस ब्रिज का नाम (नया नाम – शिवाजी ब्रिज) तक बदल गया, लेकिन नहीं बदली तो मिंटो ब्रिज अंडरपास की स्थिति। शायद ऐसी ही देशव्यापी समस्याओं के लिए दिग्गज नेता के वक्तव्य का बदला स्वरूप कुछ ऐसा हो सकता है – सरकारें आएँगी, जाएँगी, मुख्यमंत्री आएँगे, जाएँगे, लेकिन ये ब्रिज रहना चाहिए। इसके नीचे हर साल होने वाली जलभराव की समस्या रहनी चाहिए।
आज देश में स्मार्ट सिटीज विकसित की जा रही हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री का दावा है कि उन्होंने दिल्ली को लगभग लंदन बना दिया है। तब एक आम आदमी होने के नाते यह सवाल मन में बार बार जरूर उठता है कि आखिर हम इस एक अदनी सी समस्या का समाधान क्यों नहीं करते? किसी भी समस्या के समाधान के लिए समस्या का पता होना जरूरी है। मिंटो ब्रिज की समस्या खुद मिंटो ब्रिज है। लगभग 100 साल पहले बना यह रेलवे पुल पुरानी दिल्ली को नई दिल्ली से जोड़ता था। इसके एक तरफ दीनदयाल मार्ग तो दूसरी तरफ विवेकानंद मार्ग निकलता है। 100 साल पहले का बना होने के कारण अब यहाँ ढलान ज्यादा हो गई है। दूसरा सबसे बड़ा कारण इसका हेरिटेज पुल का दर्जा प्राप्त होना है, जिस कारण इसमें ज्यादा कुछ किया नहीं जा सकता। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि बिल्कुल ही कुछ न किया जा सके।
भारत में समस्याओं को जटिल बनाकर लंबे समय तक लटकाए रखने की एक परंपरा सी बन गई है। इसी नवसृजित परंपरा के कारण समस्या समाधान पर कम, समस्या को जटिलतम और दीर्घतम बनाए रखने की होड़ में सरकारी अमला ज्यादा तल्लीन रहता है। इस पुल के रखरखाव का काम 4 सरकारी विभागों के कंधे पर है, शायद इसी कारण यहां से अब अर्थी निकलना शुरू हो गई है। चारों विभाग एक दूसरे के सिर पर ठीकरा फोड़ खुद की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं। आम आदमी मरता है तो मरता रहे।
इस समस्या का एक कारगर निवारण यह हो सकता है कि इस पुल की जिम्मेदारी 4 अलग अलग विभागों के बजाय किसी एक विभाग को सौंपी जाए, और उसकी जवाबदेही तय की जाए। चूँकि पुल को हेरिटेज का दर्जा प्राप्त है, तो इसके मूल रूप से ज्यादा कुछ छेड़छाड़ संभव नहीं, इसलिए या तो एक वैकल्पिक मार्ग पड़ोस के इलाकों से निकाला जाए, अथवा एक फ्लाईओवर बनाकर इस समस्या का एक स्थाई समाधान खोजा जाए।
भारत की सरकारी मशीनरी यदि समस्याओं को जटिल बनाने के बजाए समेकित रूप से समस्या समाधान पर ध्यान लगाए तो सरकारी लापरवाही के कारण हर साल होने वाली हजारों मौतों को रोका जा सकता है। बस आवश्यकता है तो केवल जनहित में कार्य करने वाली ढृढ़ इच्छाशक्ति की जो विभागों को एकीकृत रूप से समस्या निदान के लिए प्रेरित कर सके।
काफी खोजबीन के बाद भी मिंटो ब्रिज जैसा कोई उदाहरण कहीं नहीं मिल रहा। कुछ उदाहरण जरूर हैं, अंडरपास में जलभराव की समस्या दूर करने वाले, जैसे – अहमदाबाद, बेंगलूर और वेनिस के, लेकिन मिंटो ब्रिज की समस्या इन सबसे अलग है। अन्य जगहों पर सीवर लाइन को दुरुस्त करके, और रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम के इस्तेमाल से जलभराव की समस्या खत्म की गई है जबकि मिंटो ब्रिज के साथ ये दोनों ही उपाय उसको मिले हेरिटेज के दर्जे के कारण संभव नहीं।
दूसरा इसके आसपास अव्यवस्थित ढंग से बसा दी गई अनाधिकृत कॉलोनियाँ भी इसके सुधार में बहुत बड़ी अड़चन हैं। इसलिए सरकार जब तक इसको समस्या नहीं मानेगी, समाधान नहीं निकलेगा। बीते सालों में लोगों ने इस जलभराव के साथ जीना सीख लिया है। एक बार या दो बार इस तरह की घटनाएं होती हैं, और फिर लोग अगले साल होने वाली घटना तक इसे भूल जाते हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बार इस जलभराव के कारण होने वाली मौत से सरकार और प्रशासन कुछ सबक लेकर इसका कोई स्थायी समाधान खोजेंगे और दिल्लीवासियों को राहत देंगे।
लेखक – रजत वैश्य ‘सूरज’ (@rajatvaishsuraj)