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मैं शिक्षक परिवार में जन्मा और पला-बढ़ा हूँ। यूँ समझिए कि मेरी पूरी पिछली पीढ़ी शिक्षक ही थी। मेरे संयुक्त परिवार में इस पीढ़ी में भी मेरी पत्नी के अलावा एक-दो और शिक्षक हैं। मैं विद्यालय जाने से पहले ही शिक्षकों और शिक्षकीय अनुशासन से परिचित था। आज शिक्षक दिवस है। घर के शिक्षक तो घर में ही हैं। एक-दो जने परलोक सिधार गये। इनके अतिरिक्त मुझे दर्जनों शिक्षक मिले। दो शिक्षक हर शिक्षक दिवस पर याद आते हैं – बाल सुलभ मुस्कान के साथ वर्तमान को भविष्य के साँचे में ढालते कर्मयोगी श्री नरेन्द्र नाथ मिश्र और गरिमामय व्यक्तित्व के धनी व दर्शन से ओत-प्रोत प्रो. सुरेन्द्र सिंह।
क्या ही दिन थे बचपन के। तब हम सुलेख लिखते थे। हम भोजपुरिया क्षेत्र के छात्र सुलेख को ‘लिखना’ भी कहते थे। कंडे की कलम और दवात में स्याही लेकर विशेष कागज पर ‘लिखना’ लिखा जाता था। छठी कक्षा तक हर छात्र के लिए सुलेख एक नियमित और अनिवार्य अभ्यास था। सुन्दर लिखावट किसी भी छात्र को विशिष्टता देती था। सुन्दर लिखावट की बात पर सबसे पहले दो ही नाम जेहन में आते हैं – मेरे आरम्भिक हिन्दी पंडित नरेन्द्र नाथ मिश्र और मेरे मोहन मामा। दोनों की लिखावट के लिए ‘मोतियों सा अक्षर’ अंडरस्टेमेंट था। मोहन मामा ने कंडे की कलम को कलम से ताकतवर बताकर हमें ‘लिखना’ लिखने के लिए प्रेरित किया। मोहन मामा की प्रेरणा पर धार चढ़ायी पंडित जी ने। मेरी लिखावट में भी बहुत सुधार हुआ वरना बचपन में मुझमें डॉक्टर बनने की एक ही प्रतिभा दिखी थी। आप अनुमान लगाइए …
पंडित जी से मेरा औपचारिक साक्षात्कार छठी कक्षा में हुआ। उनके मनोहर व्यक्तित्व और मृदुल वाणी ने बाल मन को बेहद प्रभावित किया था। मुझ पर पंडित जी का आरम्भिक स्नेह मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण रहा लेकिन धीरे-धीरे मैंने उन्हें स्वयं भी प्रभावित किया – थोड़ा मितभाषी और शर्मीले स्वभाव से और थोड़ा उनके पाठों को बेहतर समझ कर। यहाँ यह जोड़ देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि मेरी तब की मितभाषिता आज लोगों पर भारी पड़ रही है। मेरे ट्वीट्स और लेखों से मैं उसकी भरपाई कर रहा हूँ।
क्या ही अभिव्यक्ति की शैली थी पंडित जी की – पूरी कक्षा को बाँधकर रखने वाली। कक्षा को बाँधकर रखने के पीछे कोई भय का भाव नहीं था। तब शिक्षक छात्रों की पीड़ा ‘दुखहरण’ से हरा करते थे। इस नेक कार्य के लिए हर कक्षा में एक खजूर की छड़ी रखी होती थी, पंडित जी की कक्षा में भी। वह कभी कभी छड़ी हाथ में उठा भी लेते लेकिन उन्होंने कभी उसका उपयोग नहीं किया और न ही किसी छात्र को कभी डाँटा। जब कोई छात्र अधिक शौतानी करने लगता तो पंडित जी उसकी तरफ चॉक फेंक देते। पंडित जी का निशाना इतना अचूक था कि चॉक उसी छात्र पर गिरता और उसकी नाक के आस-पास जा लगता। फिर पंडित जी और चॉकित छात्र सहित पूरी कक्षा खिलखिला कर हँस पड़ती।
कक्षा-7 में पंडित जी हमें ‘हवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ’ कविता पढ़ा रहे थे। एक तो यह कविता इतनी प्यारी है कि इसे कोई बेसुरा भी पढ़ दे तो सुरीला ही लगेगा। लेकिन पंडित जी का काव्य पाठ अद्भुत था। उनकी मधुर वाणी में इस कविता से शरीर के रोम रोम पर बसंती हवा की छुअन महसूस हो रही थी। पद्य या गद्य कुछ भी पढ़ाते हुए पंडित का जोर प्रयुक्त तत्सम शब्दों का अर्थ समझाने पर अधिक होता था।
कक्षा के अनुसार पंडित की शैली भी बदलती थी। एक उदाहरण देता हूँ। पंडित जी हमारे अँग्रेजी शिक्षक की अनुपस्थिति में एक बार आठवीं कक्षा में हमें अँग्रेजी पढ़ाने आए और शेक्सपियर की कविता ‘Blow blow thou the winter wind’ पढ़ाने लगे। कविता पढ़ाते हुए कृतघ्नता पर उन्होंने एक छोटा-मोटा भाषण दे डाला जो अत्यंत रूचिकर और ज्ञानवर्धक था। मैं यह पूरे विश्वास से कह सकता हूँ कि पंडित इस तेवर के साथ छोटी कक्षाओं में नहीं पढ़ाते थे।
मैं पंडित जी की पाठन शैली का मुरीद हुआ जा रहा था। पंडित जी भी मुझसे प्रभावित थे। पूरी कक्षा में उनका सबसे अधिक स्नेह मुझ पर ही था। कक्षा की एक जाँच परीक्षा में पंडित जी ने कुछ प्रश्न दिए। दो छात्रों ने सारे प्रश्नों के सही उत्तर दिए। मुझे पूरे अंक मिले और दूसरे छात्र को एक कम। दूसरा छात्र मुँहठोंठी पर उतर आया। पंडित जी ने अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ उत्तर दिया, “तुम दोनों ने मेरा सामने सोना रखा था। एक में सुगंध भी थी। सुगंध न होने के कारण तुम्हारा एक अंक कट गया।“ सुगंध से पंडित जी का अभिप्राय सुन्दर लिखावट से था।
पंडित जी का ड्रेसिंग सेंस जोरदार था। दूध सी सफेद धोती, बिना इस्त्री किया हुआ खादी का साफ कुर्ता और पैर में नियाग्रा जूते छह फीट के गोरे पंडित जी के प्रभावशाली व्यक्तित्व में चार चाँद लगाते थे। पंडित जी पान के शौकीन थे पर विद्यालय में उन्होंने कभी पान नहीं खाया और न ही उन्हें कभी पान की दूकान पर देखा गया। उनके पनबट्टा में पान शाम को लाकर रखा जाता और पंडित जी शाम 4-5 बजे के बाद रात तक दो-तीन खिल्ली पान खाते।
पंडित जी में ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ कूट कूट कर भरा था। पंडित जी मूल रूप से संस्कृत के शिक्षक थे पर हमारी कक्षा में वह हिन्दी पढ़ाते थे। यह मेरा दुर्भाग्य था कि मुझे उनसे संस्कृत पढ़ने का अवसर नहीं मिला। एक बार मैंने पंडित जी से अपने संस्कृत में बहुत कमजोर होने की बात कहते हुए कहा, “मैं संस्कृत की कुछ पंक्तियाँ भी नहीं लिख सकता।“ संस्कृत लिखने का सबसे सरल उपाय पंडित जी ने कुछ यूँ बताया, “हिन्दी लिखके सियाही छिड़िक दिहs।“
पंडित जी के पढ़ाये हुए व्याकरण के पाठों में से बहुत आज मैं भूल गया हूँ लेकिन आज भी मेरे हिन्दी लिखने का आधार पंडित जी के पाठ ही हैं। आज से लगभग साल भर पहले संधि और समास पर बेटे से बात करते हुए समय के साथ मस्तिष्क पर चढ़ी विस्मृति की परत साफ हो गयी। अँग्रेजी स्कूल में पढ़ने वाला बालक जिस सफाई से संधि और समास के उदाहरण बता रहा था, उससे मुझे खुशी हुई और बरबस पंडित जी भी याद आ गये थे। स्मृति पटल का एक झरोखा पंडित जी के लिए सदैव आरक्षित रहेगा। वह झरोखा आज फिर खुला है।
पंडित जी पर खींचे गये इस छोटे शब्द चित्र से मैं शिक्षक दिवस पर पंडित जी और अपने सभी शिक्षकों को नमन करता हूँ। अगली बार बात करूँगा प्रो. सुरेन्द्र सिंह की।
हिन्दी लिखके सियाही छिड़िक दिहs – हिन्दी लिख कर उस पर स्याही छिड़क देना